देशमस्कन्ध-१० (९७) . - - - श्री। अथ कविवर सूरदास कृत- श्रीसूरसागर. दशमस्कन्ध। राग सारंग ॥ व्यास कह्यो शुकदेव सों श्री भागवत बखान ।। द्वादश स्कंध परम सुभग, प्रेम भक्ति की खान ॥ नवस्कंध नृप सों कही, श्रीशुकदेव सुजान ॥ सूर कहत अव दशम को, उर में धरि हार ध्यान ॥ १॥ राग विलावल ॥हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ ॥ हरि चरणार्विद उर धरौ॥ जय अरु विजय पार्षद दोई।विप्रन शाप असुर भये सोई॥दोइ जन्म ज्यों हरि उद्धारी।सो शुक तुमसों कहि उच्चारी,दंतवक्र शिशुपाल जो भये। वासुदेव होइ सो पुनि इए॥औरौलीला बहु विस्तार। कीन्हे जीवन ज्यों निस्तार। सोअब तुमसों सकल वखानौं । प्रेम सहित सुनि हृदये आनौं ॥ जो यह | कथा सुनै चितलाई । सोभव तरि वैकुंठहि जाई ॥ जैसे शुक नृपको समुझायो । सूरहास त्योंहीं कहि गायो॥२॥भगवान जन्म लीला ॥ राग सारंग ॥वालविनोद भावती लीला अति पुनीत पुनि भाषीहो। सावधानकै सुनहु परीक्षित सकलदेव मुनि शाषीहो ॥ १॥ कालिंद्रीके कूल वसत एक मधुपुरी नगर रसालाहो। कालनेमि उग्रसेन वंश कुल उपजे कंस भुवालाहो ॥२॥ आदिब्रह्म जननी सुर देवी नामदेवकी वालाहो । दई विवाहि कंस वसुदेवको अपभंजन उरमालाहो ॥३॥ हय गज रत्न हेम पाटंबर आनंद मंगलचाराहो ॥ समदत भई अनाहद वाणी कंसकान झनका राहो ॥ ४॥ याके गर्भ अवतरें जे सुत करिहै प्राण प्रहाराहो ॥ रथते उतरि केश गहि राजाकियो खन पटताराहो ॥५॥ तव वसुदेव दीनदै भाष्यो पुरुप न त्रियवध करईहो ॥ मैं सुनी कान मंद विधि वाणी ताते संच न परईहो ॥६॥ आगे वृक्ष फरै जो विपफल वृक्षहि विन किन सरईहो। याहि मारि तोहि और विवाहों अग्रसोच क्यों मरईहो ॥७॥ बालक काज धर्म जनि छाँडो राय न ऐसी कीजैहो। तुम मानी वसुदेव देवकी जीयदान इन दीजैहो ॥ ८ ॥ कीन्हो यज्ञहोतहै निम्फल वेद भंग नहिं कीजैहो । याके गर्भ अवतरें जे मुत सावधान द्वै लीजैहो ॥ ९ ॥ वाचावंध कंसकार छाँड्यो तव वसुदेव पतीजेहो। याके मानौ मृगी चरत गहि वनमे नैन नीर उर भीजेहो ॥३०॥प्रथम पुत्र देवकी जुजायोहो लै वसुदेव दिखायोहोवालक देखि कंस हँसि दीन्हे सब अपरा- पक्षमायोहो॥ कंस कहा लरिकाई कीन्ही कहि नारद समझायो हो । जाका भरम करतहो राजा मति पहिले सो आयो हो ॥ ११॥ यह सुनि कंस पुत्र फिरि मारचो येहिविधि सवनि संहा- रोहो। तब देवकी भई तनु व्याकुल कह ले प्राणप्रहारोहो ॥१२॥ कंस वंशको नाश करतहै कहाँले जीव उपारौंहो । इह दुख कहा मेटिहैं श्रीपति अरु हौं काहि पुकारौंहो ॥ १३ ॥धेनुरूप धरि पुहुमि पुकारी शिव विरंचिके द्वाराहो । सब मिलि गये जहां पुरुषोत्तम सोवत अगम अपा- राहो ॥ १४ ॥क्षीर समुद्र मध्यते यों कहि दीरप वचन उचाराहो ॥ उधरो धरणि असुर कुल-
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