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- - (९६) सूरसागर। । तासँग दासी गई अपार । न्हान लगी सब कपडे डार-॥ दनुजसुता तिहि नहीं निहारी । अधि- यारी आई अति भारी ॥ वसन शुक्रतनयाके लीने । करत उतावलि परत न चीने ॥ शुक्रस्ता जव आई वाहर । बसन न पाए तिन तिहि हर ॥ असुरसुताको पहिरे देखि । मनमें कीनों क्रोध विशेखि ॥ कह्यो मम वसन नहीं तुव योग । तुम दानव हम तपसी लोग ॥ मम पितु दियो राज नृप करत । तू भम वसन हरत नहिं डरत ॥ तिन करो तुव पितुः । स भिच्छा खात । बहुरि कहति हमसों ये बात ॥ याविधि कहि करि क्रोध अपार । दीनो ताहि कूप में डार ॥ नृपति ययाति अचानक आयो । शुक्रसुता को दरशन पायो ॥ दियो तव वसन आपनो डारि। हाथ पकरिकै लियो निकारि ॥ बहुरो नृप निज गेह सिधायो । सुताशुक्र सों जाइ सुनायो शुक्र क्रोध करि नगर तियाग्यो । असुर नृपति सुनि ऋषि सँग लाग्यो । जव बहु भांति विनय नृप करी । तव ऋषि यह वाणी उच्चरी ॥ ममकन्या प्रसन्न ज्यों होय । करो असुरपति अब तुम सोय॥ शुक्रसुता सों कह्यो तिन आई । आज्ञा होइ करों सु उपाई ॥ जो तुम कहौ करौं अब सोइ । तव पुत्री ममदासी होइादासीसहस ताहि संग भई । नृप पुत्री दासी करिदई।सो सब ताकी सेवा करें। दासी भाव हृदय में धरै । इकदिन शुक्रसुता मनआई। देखौ जाइ फूल फुलवाई। लै दासी.फुल. वारी गई। पुहुपसेज रचि सोवत भई ॥ असुरसुता तेहि व्यजन डुलावै । सोवत सेज सु अति सुख पावै ॥ तेहि अवसर ययाति नृप आयो। शुक्रसुता तेहि पचन सुनायो । नृप मम पाणिग्रहण तुम करो। शुक्र सकुच हृदय मति धरो। कचको प्रथम दियो मैं शापाउनहू मोहि दियो करिदाप। ताको कोई न सकै मिटाई ॥ ताते व्याहकरो तुमराई नृप कयो कहो शुक्र सो जाइ । करिहों जो कहिहैं ऋषिराइ ॥ तव तिन कहयो शुक्र सों जाइ । कियो व्याह ऋषि नृपति वुलाइ ॥ असुरसुता ताके सँग दई । दासी सहस तासु संगभई ॥ दंपति भोग करत सुख पाए । शुक्रसुता यों द्वै सुत जाए। कहयो शरमिष्ठा अवसर पाइ । रतिको दान देहु मोहिराइ ॥ नृप ताहसों कीनो भोग । तीन पुत्र भयो विधि संयोग । शुक्रसुता तिहि अवसर देखि । मनसों कीनो क्रोध विशेखि ॥ कझो शरमिष्टा सुत कहां पायो । उन कह्यो ऋपि किरपा ते जायो । वडार कह्यो ऋषि को कह नाम । कयो स्वप्न देख्यो अभिराम ॥ पुनि पुत्रन सों पूछयो जाई । पिता नाम मोहिँ कहो वुझाई ॥ बड़े पुत्र भाष्यो पुनि ताहि । नृपति पिता ययाति मम आहि ॥ सुनि नृप सों कियो युद्ध बनाई । बहुरि शुक्र सेती कह्यो जाई ।। पाछे ते ययाति हआयो। ऋषि तासों यह वचन सुनायो । तें यौवन मदते यह कीनो।ताते शाप तोहिम दीनो जरा अवहिं तोहि व्यापै आइ। भयो वृद्ध तव कयो शिरनाइ।। ऋषि तुम तो शराप मोहिं दियो । पूरनकाम नाहि मैं कियो । ताते जो माह आज्ञा होइ । आयसु मानि करौं अब सोइ ॥ कह्यो जरा तेरी सुत लेय । अपुनो तरुनापा तोहि देय ॥ भोग मनोरथ तव तू पावै । मेरे वचन मृथा नहिं जावै ॥ बड़े पुत्र यदु सों कह्यो आइ । उन करो वृद्ध भयो नहिं जाइ ।। नृप कहो तोहि राज नहिं होई । वृद्धपनो लै राजा सोई ॥ औरनहू सों जव नृप भाख्यो । नृपति वचन काहू नहि राख्यो । लघु सुत नृपति बुढ़ापो लयो । अपुनो तरुनापो तेहि दयो ॥ वर्ष सहस्त्र भोग नृप कियो । पै संतोष न आयो हियो ॥ कह्यो विषय ते तृप्ति न होई । भोग करो कैसो किन कोई ॥ तव तरुनापा सुतको दीनो । वृद्धपनो अपनो फिर लीलो ॥ वनमें करी तपस्या जाइ । रह्यो हरिचरणन सों चितलाइ ॥ या विधि नृपति कृतारथ भयो । सो राजा मैं तुमसों करो ॥ शुक ज्या नृप को कहि समुझायो । सूरदास त्योही कहि गायो॥ १७०॥ इति श्रीमद्भागवते सूरसागरे सूरदास कृते नवमास्कंधः समाप्तः ॥९॥ .. -