नवमस्कन्ध-९ - पुत्र पुत्र कहि लोट सुमित्रा रोयो॥ धन्य सुपुत्र पितापन राख्यो धन्य सुकुल जिहि लाज। सेवक धन्य अंतके अवसर आवै प्रभुके काज ॥ कत रघुनाथ मूरके कारण मोको लैन पठाये । थक्यो सुमध्य अर्ध निशि बीती को लक्ष्मणहि जियाये।पुनि धरि धीर कह्यो धनि लक्ष्मण राम काज जो आव।सूर जियै तौ जग यश पावै मरिसुरलोक सिधावै॥१४॥धिर्य सहित सुमित्रा वचन।।राग मारूधिनि जननी जो सुभटहि जावैाभीर परे रिपुको दल दलि मलि कौतुक करि दिखरावै॥कौशल्यासों कहति सुमित्रा जिनि स्वामिनि दुख पावै । लक्ष्मण जनि हौं भई सपूती राम काज जो आवै ॥ जीये तो सुख विलसे जगमें कीरति लोगन गावै । मरे तु मंडल भेदि भाव को सुरपुर जाइ बसावै ॥ लोह गहे लालच करि जियको औरो सुभट लजावै । सूरदास प्रभु जीति शत्रुको कुशल क्षेम घर आवै ॥१४८॥हनुमत भरत प्रति उत्तर।। राग मारू॥ पवनपुत्र वोल्यो सतभाय।जाति सिराति राति वातनि ही सुनो भरत चितलाय ॥ श्री रघुनाथ सजीवन कारण मोको इहां पठायो । भयो अकाज अर्घ निशिवीती लक्ष्मण काज नशायो॥ स्यों पर्वत शर वैठि पवनसुत हौं प्रभुपै पहुँचाऊं । सूरदास पांवरि मम शिरहै इहिवल भरत कहाऊं ॥१४९॥ कौशल्या संदेश राम मति ।। राग मारू ॥ विनती जाइ कहियो पवनसुत तुम रघुपतिके आगे। या पुर जिनि आवहु बिनु लक्ष्मण जननी लाज न लागे॥ मारुतसुत संदेश हमारो सुमित्रा कहि समुझावै । सेवक जूझि परै रन विग्रह ठाकुर तौ घर आयें ॥ नवते तुम गोने काननको भरत भोग सब छांड़े । मूरदास प्रभु तुमरे दरश विनु दुख समूह उर गाड़े॥१५०॥ हनूमान सजीवन लावन, लक्ष्मण चेत होन ॥राग सारंग ॥हनुमान सजीवन ल्यायो महाराज रघुवीर धीरको हाथ जोरि शिरनायो । पर्वत आनि धरयो सागर तट भरत संदेश सुनायो । सूर सजीवन दै लक्ष्मणको मुर्छित फिरे जगायो ॥ १५ ॥ श्री राम वचन मय मतिज्ञा साहित ।राग कान्हरा ॥ दूसरे कर वाण न लेहौं । सुन सुग्रीव प्रतिज्ञा मेरी एकहि बान असुर सब है हों ॥ शिवपूजा जिहि भांति करीहे सोइ पद्धति परतक्ष दिखै हौं । दैत अपराध पाय फल पीड़ित शिरमाला कुल सहित चहौं ॥ मनो तूलगन परत अगिनि मुख जानि जड़ान यमपंथ पठेहौं । करिहौं नहीं विलंब कछू अब उठि रावण सन्मुख व धैहौं ॥ इमि दामि दुष्ट देव द्विजमोचन लंक विभीपन तुमको देहौं । लक्ष्मण सिया समेत सूर कपि सब सुख सहित अयोध्या जैहौं । ॥ १५२॥ रावण कुल वध ॥ राग मारूआजु अति कोपे हैं रन राम ब्रह्मादिक आरूढ़ विमानन देखें सुर संग्राम ॥धन तन दिव्य कवच सजि करि अरु कर धारयो सारंग । शुचि करि सकल वान सुधे करि कटि तट कस्यो निपंग । सुरपुरते आयो रथ सजिकै रघुपति भयो सवार । कांपी भूमि कहा अब ढहै सुमिरत नाम मुरारि । क्षोभित सिंधु शेप शिर कंपित पवनगती भइ पंग । इन्द्र हँस्यो हर हँसि विलखान्यो जानि वचन भयो भंग ॥ धर अंबर दिशिविदिशि बढ़े अति शायक किरन समान । मानो महाप्रलयके कारन उदित उभय पटभान ॥ टूटत ध्वजा पताक छन रथ चाप चक्र शिर वान । जूझत सुभट जरत ज्यों दो द्रुम विनु शाखा विनु पान ॥ शोणित छिंछ उछरि आकासहि गज बाजिन सर लागी । मनो नगर रन तननि धरनिते उपजी है अति आगी। उठि कबंध महरात भीत है निकसत है जरि जागि। फिरत शृगाल सच्यो सो काटत चलत विसरि लै भागि ॥ रघुपति रिस पावक प्रचंड अति सीता श्वास समीर। रावण कुल अरु कुम्भकर्ण बन सकल सुभट रणधीर ॥ भये भस्म कछु वार न लागी ज्यों ज्वाला पट चीर । सूरदास प्रभु अपुने बाहुवल कियो निमिप मय कीर ॥ १५३ ॥ रघुपति अपुनो -
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