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नवमस्कन्ध-९ - तरुवर तहँ इक उपारि हनुमत कर लीनो । किंकर कर पकार वाण तीन खंड कीनो ॥ भोजन ; विस्तार शिला पवनसुत उपाटी। किंकर करि लक्षमान अंतरिक्षकांटी ॥ आगर इक लोह जरित लीनो बलवंड । दुई करनि असुर हयो भयो मानस पिंड ॥ दुर्धर परहस्त संग आई सैन भारी । पवनपूत दानव बल बाहर चल कारी ॥ रोम रोम हनु बल छलक समान । जहां तहां देखत कपि करत राम आन ॥ मंत्री सुत पांच सैन अक्षय कुँवर सूर। धीर सहित सबै हते झपटि के लंगूर ।। चतुरानन वल सँभारि मेघनाद आयो । मानो घन पावस में नगपति है छायो। देख्यो जव दृष्टि वाण निश्वर कर तान्यो। छाड्यो तव सूर हनू ब्रह्म तेज मान्यो ॥ ९४ ॥ हनूमान रावण संवाद ब्रह्मशर मुक्ति । राग मारू ॥ सीतापति सेवक तोहिं देखनको आयो। काके बल बैर तेंजु राम ते बढ़ायो॥ जेजे तुव सूर सुभट कीट सम न लेखों। तेरे दशकंध अंध प्राणनि चिनु देखों नख शिख ज्यों मीन जाल जड़यो अंग अंगा। अजहुँ नाहिं संक धरत वनचर मति भंगा ॥ जोई सोई मुखहि कहत मरण निज न जाने । जेसे नर सन्निपात हिये वुधि वखानै । तब तू गयो सुन भवन भस्म अंग पोते । करितो विनुप्राण तोहि लक्ष्मण जो होते ॥ पाछे तैं सीय हरी विधि मर्याद राखी । जोपै दशकंध वली रेखा क्यों न नाखी ॥ अजहूं सिय सोपि नतरु बीस भुजा भाने । रघुपति यह पैज करी भूतल धरि पाने । ब्रह्म बाण कानि करी वल करि नहिं बांध्यो ।। कैसे यह ताप मिटे रघुपति आराध्यो ॥ देखत कपि वाहुडंड तनु प्रस्वेद छूटे । जैजै रघुनाथ नाथ कहत बंध टूटै॥ देखत बल दूरि करयो मेघनाद गारो। आपुन भयो सकुचि सूर बंधन तेन्यारो॥९५ ॥ हनुमान लंफा नारन || राग मारू ॥ मंत्रिन नीको मंत्र विचारयो । राजन् कहो दूत काहूको कौन नृपतिहै मारचो ॥ इतनी कहत विभीपन बोल्यो बंधू पाइपरों । यह अमरीति सुनी नहिं श्रवणनि अब पै कहा करौं । तेलतूल पावक वपु धरिक देखत तुसे जरौं । अब मेरेजिय यहै वसीहै रघुपति काज करों ॥ हरी विधाता बुद्धि सवनिकी अति आतुर धाये । सन अरु सूत चीर पाटंबर लै लंगूर बँधाये । बंधनि तोरि मोरि मुख असुरनि ज्वाला प्रगट करी। रघुपति चरण प्रताप सूरप्रभु लंका सकल जरी ॥ ९६ ॥आकाशवाणी, सीता कुशल ॥ राग धनाश्री ॥ सोचि जिय पवनपूत पछिताई । अगम अपार सिंधु दुस्तर तरि कहा कियो मैं आई ॥ सेवकको सेवापन इतनो आज्ञाकारी होई ।याभय भीति देखि लंकामें सीय जरी मति होई ॥ विनु आज्ञा मैं भवन प्रजारे अपयश करिहैं लोड । वेरघुनाथ चतुर कहियत है अंतर्यामी सोइ ॥ इतनी कहत गगनवाणी भई हनू सोच कत करिहै । चिरंजीव सीता तरुवर तर अटल न कवहूं टरिहै ॥ फिर अवलोकि सूर सुख लाजै भुवमें रोम नपरिहै । जाके हिय अंतर रघुनंदन सो क्यों पावक जरि है ॥९७ ॥ लंका दग्धि पुनः सिय दर्शन । राग मारु ॥ लंका हनूमान सब जारी। रामकाज सीताकी सुधि लगि अंगद प्रीति विचारी॥जारा- वणकी शक्ति तिहूं पुर कहूं न आज्ञा टारी। ता रावणके अछत अक्षय सुत पालक सृष्टि पछारी॥ पूंछ वुझाइ गये सागर तट है जहँ सीतावारी । करि दंडवत प्रेम पुलकित है सुनि राघवकी प्यारी ॥ तुमही तेज प्रताप रहीहै तुमरी यहै अटारी। सूरदास स्वामीके आगे जाइ कहीं सुखभारी॥ ९८॥ रामचंद्र प्रति सीता संदेश हनुमंत विदा ॥ राग सारंग ॥ मेरी केती विनती करनी । पहिले करि परणाम पाँइ परि मणिरघुनाथ हाथले धरनी। मंदाकिनि तट फटिक शिल। पर सुख मुख जोरि तिलककी करनी।कहा कहौं कपि कहत न आवै सुमिरत प्रीति होइउर भरनी।। तुम हनुमंत पवित्र पवनसुत कहियो जाइ जोइ मैं बरनी । सूरदास प्रभु आनि मिलावहु मूरति