यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(८०). सूरसागर। . . . . .

.

। सफल करि जानो मेरे हृदय की कालिम जैहै। जादिन कंचन पुर प्रभु ऐहैं विमल ध्वजारथ पर फहरै हैं। तादिन सूर राम पर सीता सरबसु वारि वधाई देह ॥ ७९ ॥ राग सारंग ॥ मैं राम के. चरणन चित दीनो । मनसा वाचा और कर्मना.बहुरि मिलन को आगमन कीनो ॥डुलै सुमेरु शेप शिर कंपै पश्चिम उदै करै वासर पति । सुनि त्रिजटी तौहू नहिं छोडौं मधुर मूर्ति रघुनाथ गात रति ॥ सीता. करति विचार मनै मन आजु काल्हि कोशलपति आवै । सूरदास स्वामी करुणामय सो कृपालु मोहिं क्यों विसरावै ॥ ८० . ॥ ॥ सीता मति त्रिजटी स्वम वर्णके हनू सिय दरश परस्पर संवाद मुद्रिका अर्पण ॥ राग धनाश्री ॥ सुन सीता सपनेकी. वात रामचंद्र लछमन मैं देखे ऐसी विधि परभात।कुसुम विमान बैठि वैदेही देखी राघव पासाश्वेत. छत्र रघुनाथ शीशपर दिनकर किरण प्रकाश ॥ भयो पलायमान दानवकुल व्याकुलताइक त्रास । पंजरत ध्वजा पताक छत्र रथ मनिमैं कनक अवास ॥ रावन शीश पुहुमिपर लोटत. मंदोदरि विलखाइ । कुम्भकर्ण तनु खंग लगाई लंक विभीषण पाइ॥ प्रगट्यो आइ लंकदल कपिको फिरि रघुवीर दुहाई । यह सपनेको भाव सखीरी क्योहूं विफल न जाई ॥ विनटी वचन सुनत बैदेही अति दुख लेत उसांस । हाहा रामचन्द्र हालछिमन हा कौशल्यासास ॥ त्रिभुवन नाथ नाह ज्यों पायो सुन्यो रहै वनवास । हा कैकयी सुमित्रा रानी कठिन निशाचर त्रास ॥ कौन पाप मैं पापिन कीनो प्रगटयोहै इहिवार॥धिग धिग जीवन है अव इहि तनु क्यों न होइ जरिछार। द्वै अपराध मोहिं ये लागे मृगके हित दीने हथियार ।। जान्यो नहीं निशाचरके छल नाखी धनुष अकार। पंछी एक सुहृद जानतहो करयो निशाचर भंग । ताते विरामि रहयो रघुनंदन कर मनसा मन पंग ॥ इतनो कहत नैन उर फरके सगुन जनायो अंग । आजु लहौं रघुनाथ संदेशो मिटै विरह दुखसंग ॥ तिहिछिन पवनपूत तहँ प्रगटेउ सिया अकेली जानि ! श्री दशरथकुमार दोउ बंधू धरे धनुष दोउ पानि ॥ प्रिया वियोग. फिरत मारे म.. न परे सिंधु तट आनि । ता सुन्दरि हित मोहिं पठायो सकौं न हौं पहिचानि ॥ वारंवार निरखि तरुवर तन कर मीड़ति पछिताइ। देव जीव पशु पक्षी कोतू नाम लेत रघुराइ ॥ वोले नहीं रह्यो । दुरि वानर द्रुम में देह छुपाइ । के अपराध ओढ अब मेरो कै तू देहि दिखाइ ॥ तरुवर त्यागि चपल शाखामृग सन्मुख वैठयो आइ । माता पुत्र जानि दै उत्तर कहु किहि विधि विलखाइ ॥ किन्नर नाग देवि सुरकन्या कासों हित उपजाई । के तू जनककुमारि जानकी राम वियोगिनि आई ॥ राम नाम सुनि उत्तर दीनो पिता बंधु तू होहि । मैं सीता रावन हरि ल्यायो त्रास दिखाव- त मोहि । अब मैं मरौं सिंधुमें बूडौं चित में आवै कोह। सुनो बच्छ जीवन धिग मेरो लक्ष्मण राम विछोह ॥ कुशल जानकीजू रघुनंदन कुशल लक्ष्मण भाई । तुम हित नाथ कठिन व्रत कीनों नहिं जल भोजन खाई। मुरैन अंग कोऊ जो काटै निशि वासर सम जाई। तुम घट प्राण देखियत | सीता विना प्राण रघुराई ॥ बानर वीर चहूँ दिशि धाए हूँ गिरि वनचारी। सुभट अनेक सरल. | दल साजे परे सिंधु के पारी ॥ उद्यम मेरो सफल भयो अब मैं देखो तुम आइ । अब रघुनाथ । मिलाऊं तुमको सुन्दरि सोग सिराइ ।। यह सुनि सिय मनःसंका उपजी रावन दूत विचारि । श्रवनः {दि अंचर मुख ढाँप्यो अरे निशाचर चोर । काहे को छलं करि करि आवत धर्म विनासन मोर ॥ पावक परौं सिंधु महँ बूडौं नहिं मुख देखा तोर । पीली क्योंन पीठि दै मोको पाहन सरिस कठोर जिय में डरयो. मोहि मति शापै व्याकुल वचन कहत । जो वर दियो सकलं देवन मोहिं नाउँ ।