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नवमस्कन्ध-९ - जानकी मोहि । वडोभग्य गुण अगम दशानन शिव वर दीनो तोहि ॥ केतक राम कृपण ताकी पितुमातु घटाई कानिातेरे पिताजनककी सीता कीरति कहौं वखानि।विधि संयोग टरत नहिं दारयो वन दुख देख्यो आनि । अव रावण घर विलास सहन सुख कहयो हमारो मानि ॥ इतनो वचन सुनत शिरध्वनिकै बोली सिया रिसाइ । अहो ढीठ मति मुग्ध निशिचरी सन्मुख बैठी आइतव रावण को वदन देखिहौं दश शिर शोणितहाइ । के तन देउ मध्य पावक के के विलसे रघुराइ ॥ जो पै पतिव्रता व्रत तेरे जीवत विछुरी काइ ॥ तव किन मुई कहौ तुम मोसों भुजागही जयराइ ॥ अब झुठो अभिमान करति सिय झुकति हमारे ताइ । सुखहीं रहसि मिलो रावणको अपने सहज सुभाइ॥ जो तू रामहि दोप लगावै करौं प्राणके घातातुमरो कुलको वेर न लागै होत भस्म संघात॥ उनके क्रोध जरै लंकापति तेरे हृदय समाइ। तोपै सूर पतिव्रत सांचो जो देखौं रघुराइ ॥ ७॥ ॥ निशिचरी सीता सत प्रगट करन रावण निज उद्धार ज्ञान ॥ राग धनाश्री ॥सुनो क्यों न कनकपुरीके राइ । हौं बुधि बल छल कार पचिहारी लख्यो न शीश उचाइ । डोले गगन सहित सुरपति अरु पुहुमि पलटि जगजाइनशै धर्म मन वचन काय करि शंभु अचंभुकराइ । अचला चलै चलत पुनि थाकै चिरंजीव सो मरई। श्री रघुनाथ प्रताप पतिव्रत सीता सत नहिं टरई।ऐसी त्रिया हरित क्यों आई जाके यह सतभाइ।मन वच क्रम और नहिं दूजोतजि रघुनन्दनराइ।।इनके क्रोध भस्म है जैहौ करहु नसीता चाउ अब तुम काकी शरन उवीरहो सो वल मोहिं वताउ॥ जो सीता सतते विचलै तौ श्रीपति काहि सँभारै । मोसे मुग्ध पहापापीको कौन क्रोध करि तारै ॥ यह जननी वे प्रभु रघुनंदन हम सेवक प्रतिहार । सीताराम सूर संगम विनु कौन उतारै पार ॥ ७६ ॥ रावण लोभ दिखावन नानकी निरादार करन। रागं मारू ॥ जनकसुता तू समुझि चित्त में निरखि मोहि तन हेरी । चौदह सहस किन्नरी जेती सव दासी हैं तेरी ॥ कहै तो जनक गेह दै पठवौं अर्ध लंकको राज । तोहिं देखि चतुरानन मोहै तू सुन्दरि शिरताज ॥छाडि राम तपसी के मौहै उठि आभूषण साज । चौदहसहस तिया मैं तोको पटा बँधाऊं आज ॥ कठिन वचन सुनि श्रवन जानकी सकी न वचन सहार । तृण अंतर दै दृष्टि तिरौंछी दई नैन जलधार ॥ पापी जाउ जीभ गलि तेरी अजुगत पात विचारी। सिंहको भक्ष शृगाल न पावै हौं समरथ की नारी ॥ चौदह सहस दुष्ट खर दूपण रघुपति एकहि वान । लक्ष्मण राम धनुप सन्मुख कार काके रहि हैं प्राण ॥ तेरी अवधि कहत सब कोऊ ताते कहि यत बाताविनु विश्वास मारिहँ तोको आजु निकै प्रात॥ मेरो हरन मरन है तेरो स्यो कुटुंब संतान । जारी है लंक कनकपुर तेरो उदित रघुकुल भान ॥ यह राक्षस की जाति हमारी मोह न उपजै गात । पत्रिय रमै धर्म कहां जाने डोलत मानुप खात ॥ मनमें डरी कानि जिनि तोरै मुहि अवला जिय जानि। नख शिख वसन संभारि सकुचि तनु कुच कपोल गहि पानि ॥ रे दशकंध अंध मति तेरी आयु तुलानी आनि । सूर राम की करी अवज्ञा डार सब भुज भानि॥ ७७॥ त्रिजटाने सीताको समाधान किया । राग मारू॥त्रिजटा सीता पै चलि आई। मनमें सोच न कर तू माता यह कहिके समुझाईनल कूवर को शाप रावनहिं तोपर वल न वसाई । सूरदास मनु जरी सजीवन श्री रघुनाथ पठाई ॥७८ ॥ त्रिजटा मति सीता मनोर्थ वर्णन॥ राग, कान्हरा ॥ सो दिन त्रिजटी कहि कव व है। जादिन चरन कमल रघुपतिके हरपि जानकी हृदय लगैहै।कबहुँक लक्ष्मण पाइ सुमित्रा माइमाइ कहि मोहिं सुने है।कबहुँक कृपावंत कौशल्या वधू वधू कहि मोहि वुलै है। जादिन राम रावणहिं मारे ईशहि दैदशशीश चढ़े है । तादिन जन्म