नवमस्कन्ध-९ (७७) धनुप सँभारि। कृपानिधान नाम हित धाए अपनी विपति विसारि ॥ अहो विहंग कहो अपनो दुख पूछत तब जु मुरारि । किहि मतिमूढ वध्यो तनु तेरो किधौं विछोही नारि ॥ श्रीरघुनाथ रमनि जगजननी जनक नरेश कुमारि। ताको हरण कियो दशकंधर हौं जो लग्यो गुहारि ॥इतनी सुनि कृपालु कोमल प्रभु दियो धनुष कर झारि।मानोसूर प्रानले रावन गयो देह को डारि॥६३॥ गिद्ध हरि पद प्राप्ति ॥ राग केदारा ॥ रघुपति निरखि गिद्ध शिरनायो । कहिकै बात सकल सीता की तनु तजि चरण कमल चित लायो ॥ श्रीरघुनाथ जानि जन अपना अपने कर करि ताहि जरायो । सूरदास प्रभु दरश परश करि हरिके लोक सिधायो ॥ ६ ॥शवरी को हरिपद माति ॥ शबरी आश्रम रघुवर आए । अासन दै प्रभु बैठाए ॥ खाटे तजि फल मीठे लाई । जूठे भये सु सहज सुनाई ॥ अंतर्यामी अति हित जाने। भोजन कीने स्वाद बखान ॥ जातन काहूकी प्रभु जामत । भक्त भाव हरियुग युग मानत।करि दंडवत भई बलिहारी। पुनि तनु तजि हरिलोक सिधारी ॥ सूर प्रभू करुणामय भये । निज कर करि तिल अंजाल दये ॥ ६५ ॥ किष्किंधा काण्ड ॥ सुग्रीव आजा हनुमान रामको मिलाप || राग सारंग || ऋष्यमूक पर्वत विख्याता। इक दिन अनुजसहित तहां आये सीतापति रघुनाथा ॥ कपि सुग्रीव वालिके भयते वस्यो हुतो तहँ आई । त्रासमानि तव पवनपुत्रको दीनो तुरत पठाई ॥को यह वीर फिर वन भीतर किहि कारण इहां आए । सूर प्रभूके निकट आइकपि हाथ जोरि शिरनाए॥६६॥हनुमान राम संवाद । सुग्रीवको रामजीका दर्शन॥रागमारू। मिले हनु पूछी असि प्रभु वात ।महामधुर प्रियवाणी बोलत शाखामृग कौन ते तात ॥अंजानको सुत केसरिकेकल पवन गवन उपजायो गातातुमको वीर नीरभार लोचन मीन हीन जलज्यों मुरझात॥ दशरथ कुल कौशलपुरवासी त्रियाहरी ताते अकुलात । ये गिरिपति कपिपति सुनियतहैं वालि त्रास कैसे दिन जात।। महादीन बलछीन विकल अति पवनपूत देखत विलखात । सूर सुनत सुग्रीव चले उठि चरन गहे पूछी शलात ॥ ६७॥ बालिवध, सीता भूपण दर्शन, सप्तताल भेद ॥राग मारू ॥ भाग्य बड़े इहि मारग आये । गदगद कंठ शोकसों रोवत पारि विलोचन छाए । महाधीर गंभीर वचन सुनि जाम्बवंत वचन समुझाई । बढ़ी परस्पर प्रीति राति त व भूपण सिया दिखाए ॥ सप्त ताल शर साधि वालि हति मन अभिलाप वढाए । सुरदास प्रभु भुजनिके वलि बलि विमल विमल यश गाए॥६८॥ सुग्रीव राज, अंगद समाधान । राग सारंग ॥राज दियो सुग्रीव को तिन हरि यश गायो । पुनि अंगद को बोलि ढिग या विधि समुझायो । होनिहार सोइ होति है नहिं जात मिटायो । सूरदास प्रभु चतुरमास ता और बितायो ॥६९॥ पवनपुत्र अंगदादि मुद्रिका सहित सीता सुधि हित संपाति मिलाप । राग सारंग॥ श्रीरघुपति सुग्रीव को निज निकट बुलायो । लीजै सुधि अब सीयकी यह कहि समुझायो । जाम्वंत अंगद हनू उठि माथो नायो । हाथ मुद्रिका दई प्रभु संदेश सुनायो आए तीर समुद्रके कछु शोध न पायो । संपाती तहँ मिल्यो सूर यह वचन सुमायो॥ ७० ॥ संपातीका सीता अवस्था वर्णन कपिन मति । राग सारंग ॥ विछरी मनो संगते हिरनी। चितवति रहति चकित चारो दिशि उपजी विरह तनु जरनी ॥ तरंवर मूल अकेली ठाढी दुखित राम की घरनी । वसन कुचील चिहुर लपटाने देह पीतांबर बरनी ॥ लेत उसास नयन जल भरि भरिधुकि जुपरी धरि धरिनी। सूर सोच जिय पोच निशाचर राम नाम की शरनी ॥७॥ सुंदर कांह । समुद्र तीर परस्पर मंत्र, इनु विदा, सुरसा मुख प्रवेश । राग फेदारा। तब अंगद इक वचन कह्यो। तोकरि सिंधु सिया सुधि लावै किहि वल इतो लयो॥ इतनो वचन श्रवन सुनि हण्यो हँसि बोल्यो
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