नवमस्कन्ध-९ -- । राग कान्हरा|गुरू वशिष्ट भरत समुझायो।राजाको परलोक संवारो युग युग यह चलि आयो।चंदन अगर सुगंध और सब विधि करि चिता बनायो।चले विमान संग गुरु पुरजन तापर राज पुढायो। दिन दश लौं जल कुंभ साजि शुचि दीपदान करवायो।भस्म अंत तिल अंजलि दीनो देव विमान चढ़ायो । जानि एकादश विप्र बुलायो भोजन बहुत करायो । दीनो दान बहुत नाना विधि इहि विधि कर्म पुनायो। सब करतूति कैकयीके शिर जिन अभिलाप उपायो । इहिविधि सूर अयो- ध्यावासी दिन दिन काल गँवायो॥ १८ ॥ भरत गवन रामजी निकट बन विषे परस्पर संवाद । रांग सारंग। राम पै भरत चले अकुलाई । मनही मन सोचत मारगमें दई फिरै क्यों राघवराई ॥ देखि दरश चरणन लपटानो गदगद कंठ न कछु कहि आई । लीनो हृदय लगाइ सूर प्रभु पूंछत भद्र भए क्यों भाई ॥ १९ ॥ राम सीता मिलाप दशरथ परलोक श्रवण । राग केदारा ॥ भरत मुख निरखि राम विल- खाने । मुंडित केश शीश विहवल दोउ उमगि कंठ लपटाने ॥ तात मरन सुनि श्रवण कृपानिधि | धरणि परे मुरछाई । मोह मगन लोचन जलधारा विपति हृदय न समाई ॥ लोटति धरणि परी सुनि सीता समुझति नहि समुझाई । दारुण दुःख दया ज्यों तृणवन नाही बुझति वुझाई। दुर्लभ भयो दरश दशरथको भयो अपराध हमारे । सूरदास स्वामी करुणामय नैनन जात उघारे॥५०॥ श्री राम भरत संवाद । राग केदारा । तुम विमुख रघुनाथ कौन विधि जीवन कहा वन।। चरण सरोज विना अवलोके को सुख धरणि गनै । हठ करि रह्यो चरण नहिं छांडे नाथ तो निठुराई । परमदुखी कौशल्या जननी चलो सदन रघुराई।।चौदह वर्प तातकी आज्ञा मोपै मेटि न जाई । सूरस्वामी पाँवरी शीश धरि भरत चले विलखाई ॥५१॥ राम उपदेश भरत प्रति । राग माझ ॥ बंधू करियो राज सँभारे। राजनीति अरु गुरुकी सेवा गाइ विप्र प्रतिपारे॥ कौशल्या कैकयी सुमित्रा दरशन सांझ सवारे । गुरु वसिष्ठ अरु मिलि सुमंतसों परजा हेतु विचारे ॥ भरत गात शीतल है आयो नैन उमगि जलधारे । सूरदास प्रभु दई पावरी अवधपुरी पग धारे ॥५२ ॥ भरत विदा करण । राग सारंग।। राम यों भरत समुझायो । कौशल्या कैकयी सुमित्राको पुनि पुनि शिरनायो ॥ गुरु वशिष्ट अरु मिलि सुमंतसों अर्तिही प्रेम बढ़ायो । बालक प्रतिपालक तुम दोऊ दशरथ लाड़ लड़ायो । भरत शत्रुधन कर प्रणाम रघुवर हित कंठ लगायो । गद्गद गिरा सजल अति लोचन हिय सनेह जल छायो॥ कीजै यह विचार परस्पर राजनीत समुझायो । सेवा मात प्रजा प्रतिपालन यह युग युग चलिआयो । चित्रकूट ते चले तिही वन मन विश्राम न पायो। सूरदास बलि गयो रामके निगम नेति जहि गायो॥५३॥दंडकपनमें शूर्पनखाको नाकछेदन | राग मारू ॥ दंडकवन आए रघुराई । काम विवस व्याकुल उर अंतर राक्षसि इक तहां आई ।। हँसि करि राम कह्यो सीतासों इहि लक्ष्मण के निकट पठाई। भ्रुकुटी कुटिल अरुण अति लोचन अग्निशिखा मुख कह्यो फिराई । ए बौरी भई मदन विक्स मेरे ध्यान चरण रघुराई । विरह व्यथा तनु गई लाज छुटि वारवार अकुलाई ॥ रघुपति कह्यो निलज्ज निपट तू नारि राक्षसी ह्यांतें जाई । सूर प्रभू वेनी श्रुति वाके छेद्यो नाक गई खिसिआई ॥५४ ॥ खर दूषण वध मारीच रावणको वनमें आवन । राग सारंग ॥ खर दूपण यह सुनि उठिधाए । तिनके संग अनेक निशाचर रघुपति आश्रम आए ॥ श्री रघुनाथ लछन ते मारे कोउ एक गए पराए। शूपनखा ये समाचार सब लंका जाय सुनाए ॥ दशकंधर मारीच निशाचर यह सुनिक अकुलाए । दंडकवन आए छलके हित सूर ठग्यो रघुराए ॥ १५ ॥ मारी चवध सीताहरण मार्गमें गृध्रसो युद्ध ॥ राग फेदारा ॥ सीता पुहुप वाटिका लाई । नानाविधि | -
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