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नवमस्कन्ध-९ - - - - अथ कविवर सूरदास कृत- श्रीसूरसागर. नवमस्कन्ध. राजा पुरूरचाको नैराग्य वर्णनाराग पिलायल। शुकदेव कह्यो सुनो हो राउ । नारी नागिनि एक स्वभाउ नागिनिके काटे विप होइ । नारी चितवत नर रहे भोइ ॥ नारी सों नर प्रीति लगावै । पैनारी तिहि मनहिं न ल्यावै ॥ नारी संग प्रीति जो करें। नारी ताहि तुरत परिहरै ।। नृपति एक पुरूरवा भयो । नारीसंग हेतु तिन ठयो॥ तासों उन कटु वचन सुनाए । पे ताके मन कळू न आए।वहुरो तिहि उपज्यों वैराग । गयो उरवसी को सो त्याग॥हरिकी भक्ति करत गतिपाई। कहों सुकथासुनो चितलाई ॥ एकवार महाप्रलय भयो । नारायण आपे रहिगयो । नारायण जलमें रहेसोई । जागि को बहुरो जग होई।।नाभि,कमल ते ब्रह्मा भयो।तिन मनते मरीचिको ठयो।पुनि मरीचि कश्यप उपजायो। कश्यप की तिय सूरज जायो । सूरज के वेवस्वत भयो । सुत हितसो वशिष्ट पैगयो। ताकी नारि सुता हित भाप्यो।सुनि वशिष्ट अपने मन राख्यो।ऋपि नृपसों जज्ञ विधि करवाई।इला सुता ताके गृह आई ॥ नृप कह्यो पुत्र हेतु यज्ञ कियो । पुत्रीभई यह अचरज भयो। ऋपि कह्यो रानी पुत्रीकही । मेरे मनमें सोई रही ।। ताते पुत्री उपजी आइ । करिहै पुत्र ताहि हरिराइ ॥ हरि तापुत्री सो सुत करयो । नाम सुद्युम्न ताहि ऋपि धरयो॥ एक दिवस सुअखेटक गयो । जाइ अवि का बन तिय भयो।बुधके आश्रम सो पुनि आयो। तासों गंधर्व व्याह करायो । बहुरो एक पुत्र तिन जायो। नाम पुरूरवा ताहि धरायो । पुनि सुद्युम्न वशिष्ठ सों कहयो । अंवा वनमें तिय है गयो ।। ऋपि शिवसों बहु विनती करी । तब शिव यह वाणी उच्चरी ।। एक मास यह बहे नारि । द्विती य मास पुरुप आकारि ॥ तव सुद्युम्न अपने गृह आयो। राज समाज माहिं सुख पायो। तीनि पुत्र तिन और उपाए । दक्षिण राज करन सुपठाए । दश सुत ताके उपजे और । भयो इक्ष्वाकु सवन शिरमार ।। सूरज वंशी सो कहवायो । रामचंद्र ताही कुल आयो । सोम वंश पुरूरवा सों भयो । सकल देश नृप ताको दयो॥ तिहि वंश लियो कृष्ण अवतार । असुर मारि कियो सुरन उद्धार । कहिहीं कथा सुकार विस्तार । पुरूरवा कथा सुनो चितधार॥ पुरूरवा गेह उरवसी आई। मित्रवरुन ते शापहिं पाई ॥ नृपति देखि तेहि मोहित भयो। तिन यह वचन नृपति सों कह्यो। विन रतिकाल नम नहि होवहु । मम मेठीन को कहूं न खोवहु ।। तब.लों में तुमरो संग करौं। वचन भंग भयते परिहरौं । नृपति कह्यो तुम कह्यो सुकरिहौं । तुमरीआज्ञा मैं अनुसरिहौं। तासों मिलि नृप बहु सुख माने । पट पुत्र तासों उतपाने ॥ सुरपुर सों गंधर्व पुनि आयो। उरवसी सो यह वचन सुनायो। अब तुम इंद्रलोकको चलो। तुम विनु सुरपुर लगत न भलो ॥ तिन उरवसी कहो या भाइ । छल पल करि सको ती लैजाइ॥ मम चलिवेको यहै उपाव । छल करि मेदनि ।