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. सूरसागर। .. - धाइ पुनि जाइ निजजंघपर नखनिसों उदर डारयो विदारी । देखि यह सुरज वर्षा करी पुह- पकी सिद्ध गंधर्व जय ध्वनि उचारी ॥ वहुरि बहु भाइ प्रहाद स्तुति करी ताहि दैराज बैकुंठ सिधाई । भक्तके हेत हरि धरयो नरसिंह वपु सूर जन जानि यह शरन आई ॥५॥ रागधनाश्री ॥ तव लगि हौं बैकुंठ न हों।सुनु प्रहलाद प्रतिज्ञा मेरी जव लगितुम शिर छत्र न देहोमिन बच क्रमजान जिय अपने जहां जहां जन तहां तहां ऐहो।निर्गुण सगुण होइ सब देख्यो तोसों भक्त कहूं नहिं पैहों ॥ मो देखत मो दास दुखित भयो यह कलंक हौं कहां गवैहों ॥हृदयं कठोर कुलि शते मेरो अब नहिं दीनदयालु कहैहों ॥ गहि तनु हिरनकशिपुको चीरो फारि उदर तब रुधि र नहैहों । इहि हत मिटै कहै सूरज प्रभु या कृत को फल तुरत चखैहों ॥६॥ श्रीभगवान शिव सहाय वर्णन ॥ राग विलावराहरि हरि हरि हरि सुमिरन करो। हरि चरणार्विद उरधरो॥ हरिजों शिव को करी सहाईकहौं सुकथासुनो चितलाई एक समै सुर असुरप्रचारि।लरे भये असुरन की हारि।। तिन ब्रह्मा के हित तप कीनो। ब्रह्मा प्रकटि दरश तब दीनो।तब ब्रह्मा. सों कह्यो शिरनाइ । जै है। हमरी किहि भाइ ॥ ब्रह्मा तव यह वचन उचारयो । मय माया मय कोट सँवारयो॥ तामें वैठि सुरन जयकरो। तुम उनके मारे नहिंमरो।।असुरन यह मयको समुझाई।।तव मयदीनो कोटबनाई। लोहतले मधरूपा लायो। ताके ऊपर कनक लगायो॥ जहँले जाहि तहां वह जावै । त्रिपुर नामसो. कोट कहावै।। गढके बल असुरन जयपाई । लियो सुरन सों अमृत छिनाई । सुर सव मिलिं गए शिव शिरनाई । शिव तव कीन्ही तिनै सहाई ॥ पै शिव जाको मारन धाई: 1. अमृत पिआइ तिहिलेल्ह जिवाई ॥तब शिव कीनो हरिको ध्यान । प्रगट भए तहां श्रीभगवान ।। शिव हरिसों सब कथा सुनाई । हरि कह्यो अब में करों सहाई ॥ सुंदर गऊरूप हरि कीनो । बछरा कार ब्रह्मा संग लीनो ॥ अमृत कुंडमें पैठी जाय । कह्यो असुरन मारो यागाय॥ एकनि कह्यो याहि. मतमागे। याको सुंदर रूप निहारो॥ कितक अमृत पीव यहि भाई । हरि मात तिनकी फिर भर- माई॥ हरि अमृत पिय गए अकास असुर देखि यह भए उदास॥ कयोइहिही हिरणाक्ष सुमारयो हिरण्यकशिपु इनहिँ संहारयो॥ यासों हमरो कछु न बसाई । यह कहि असुर रहे खिसियाई ॥ शिव तव कोनो युद्ध अपार । पै असुरननहिं मानी हार ॥ वाण एक हार शिवको दियो । तासों सब असुरन क्षय कियो ॥ याविधि हरि जू करी सहाय । मैं सो तुम सों दई सुनाय ॥ शंक ज्यों तृपको कहि समुझायो । सूरदास जन त्योंही गायो॥ ७ ॥ नारद उत्पत्ति कथा वर्णन । राग बिलावल । हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो । हरि चरणार्विंद उर धरो ॥ हरि भजि जैसों नारद भयो । नारद व्यासदेवसों कह्यो। कहीं सुकथा सुनो चित धार । नीच ऊंच हरिके इंक सार ॥ गंधर्व ब्रह्मासभा मँझार । हँस्यो अप्सरा ओर निहार ॥ कह्यो ब्रह्मा दासी सुत होही । सकुचन करी देखि तैं मोहिं॥ भयो दासीसुत ब्राह्मण गेह ! तुरत छाँडिकै गंधर्व देह ॥ ब्राह्मण गृहहरिके जन छाए। दासी दास सेवहित ल्याये ॥ हरि जन हार चरचा जो करे । दासीसुतसो हृदय धरै ।। सुनत सुनत उपज्यो वैराग । कह्यो जाउँ क्यों माता त्याग । ताकी माता खाई कारे । सो मरगई शापकी मारे ॥दासी सुत वन भीतर जाई । करी भक्ति हरिपदं चित लाई ॥ ब्रह्म पुत्र तनु तजि.सो भयो । 'नारद यों अपने मुख करो ॥ हरिकी भक्ति करे जो कोई । सूर नीच सो ऊंच सु ..होई ॥ इति श्रीभागवते सूरसागरे सूरदास कृते सप्तमस्कंधः समाप्तः ॥ ७ ॥