सप्तमस्कन्ध-७ तोहूं क्रोधन कियो विकारि । महादेव हू फिरे निहारि ॥ बहार इन्द्र स्तुती उचारी । मुयोअसु- र सुरभये सुखारी ॥ है यज्ञ अब देवमुरारी । क्षमिए क्रोध सुरनं सुखकारी। पुनि लक्ष्मी यों विनय सुनाई। उरों देखि यह रूप निवाई ॥ महाराज यह रूप दुरावहु । रूप चतुर्भुज माहिं दिखावहु ॥ वरुन कुरादिक पुनि आए । करी विनय तिनहूँ बहु भाए ॥ तोहूं क्रोध क्षमा नहिं भयो । तब सब मिलि प्रहादहिकझो ॥ तुमरे हेतु हरि लियो अवतार । तुम अब जाइ करो मनुहार ॥ तव प्रह्लाद हरि निकट आइ । करि दंडवत परो गहि पाइ ॥ तब नरहरि जू ताहि उठाइ । है कृपालु वोल्यो याभाइ।कहु जुमनोरथ तेरो होइ । छाडि विलंब करों अव सोइ ॥ दीनानाथ दयालु मुरारी । मम हित तुम लीनो अवतारी॥असुर अशुचिहै मेरी जात । मोहिं सनाथ कियो तुम नाथ ।। भक्त तुम्हारी इच्छा करै । ऐसो असुर को क्यों मरे ॥ भक्त- नहित तुम धारी देह । तरिहैं गाइ गाइ गुण एह ॥ जग प्रभुत्व प्रभु देखा जोई । सो विनतुम क्षिण भंगुर होई । इन्द्रादिक जाते भय करयो । सोमम पिता मृतकहोइ परयो । साधु संग प्रभु मोको दीजै । तिहि संगत तुम भक्ति करीज और न मेरी इच्छा कोइ । भक्ति अनन्य तुम्हारी होइ । और जु मोपर कृपाकरो। जो सवजीवनको उद्धरो॥ जोकहो कर्मभोग जब करिहैं । तव एजीव सकल निस्तार हैं ।। ममकृत इनके बदले लेहु । इनके कर्म सकल मोहिं देहु ॥ मोको नरक माहि लै डारो। पैप्रभु न इनको निस्तारो॥पुनि कह्यो जीव दुखित संसारा । उपजत बिनशत वारंवारा ॥ विना कृपा निस्तार नहोई । करो कृपा में मांगत सोई।।प्रभु मैं देखि तुम्हें सुखपायत । पै सुर देखि सकल डरपावत ॥ ताते महा भयानकरूप । अन्तर्ध्यान करो सुर भूप ॥ हरि कह्यो मोहिं विरद की लाज । करो मन्वन्तरलों तुमराजाराजलक्ष्मी मद नहिं होइ ।कुलइकीसले उधरे सोइ ॥ जोमम भक्त नरकमें जाइ । होइ पवित्र ताहि पर साइ ॥ जाकुल माहि भक्त मम होइ । सप्त पुरुप लै उधरै सोइ ॥ पुनि प्रहलाद राज वैठाए । सव असुरन मिलि शीश नवाए ॥ नरहरिदेखिहर्प मनकी नो अभयदान प्रहादहिंदीनो ॥ तव ब्रह्मा विनती अनुसारी । महाराज नरसिंह सुरारी ॥ सकल सुरनको कारज सरो। अंतर्ध्यान रूप अब करो ॥ तव नरहरि भे अंतर्ध्यान । राजा सों शुकको वखान ॥ जो यह लीला सुने सुनावे । सूरदास हरि भक्ति सुपावै ॥२॥ रागरामकली । पढौ भैया कृष्ण गोविंद मुरारी । कहै प्रहाद सुनो रे बालक लीनै जन्म सुधारी ।। कोहै हिरण्यकशिपु अभि मानी जोर सके तुम मारे । राखनहार वहे कोट और श्याम धरे भुज चारि ॥ कर्मरूप सुदेव नारायण नहिं दीजै सुविसारि ॥ सूरदास ता हरिसे मीता कबहूँ न आवै हारि॥३॥ राग कान्हरा ॥जो मेरे भक्तन्ह दुखदाई । सो मेरे इहि लोक वसे जिन त्रिभुवन छोड़ि अनत कहुँ जाई ॥ शिव विरं चि नारद मुनि देखत तिनहुँ न मोको सुरति दिवाई । वालक अवल अजान रहै वह दिन दिन देत त्रास अधिकाई ॥ खंभ फारि गलगाजि मत्त बल क्रोधमान छवि वरणि न जाई ॥ नैन अरु न विकाल दशन अति नखसों हृदय विदारन आई ॥ कर जोरे प्रहाद जू विन विनय सुनो अस रन शरनाई। अपनी रिसे विसीर तात मम अपराधी सुपरमगति पाई ॥ दीनदयालु कृपानि घि नरहरि अपनो जानि हृदय लियो लाई। सूरदास प्रभु पूरण ठाकुर को सकलहि तुमसे निराई ॥ ४॥ रागमारू ॥ ऐसी को सके करि बिना मुरारी । कहत प्रह्लाद के धारि नरसिंह वपु नि कसि आए तुरित खंभ फारी । हिरण्यकश्यपु निरखि रूपचकृत भयो बहुरि कर ले गदा असुर । घायो । हरि गदायुद्ध तासों कियो भली विधि बहुरि संध्या समय होत आयो ॥ गहि असुर ॥ या
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१५२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।