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पष्ठस्कन्ध-६ यद्यपि वै हरि नाउँ न लेहींतद्यपि तिहि हरि निज पद देहीकिसोइ पापी क्यों नहिं होई ।राम नाम चित उचरैसोई॥तुमरोनहिं ताठौर अधिकार । मैतुमसों यह कही पुकार।अजामेल हरिभक्तन देखि। मनमें कोनो हर्प विशेखि ॥यमदूतन को इनहि निवारयो। वा अयतें मोहिं इन्हीं उबारयो । तव मन माहिं आनिवैरागापुत्र कलन मोह सब त्यागाहिरिपदसे उन ध्यान लगायोतातकाल वैकुंठसिधायो। अंतकाल जो नाम उचारै । सो सब अपने पापन जारज्ञान विराग तुरंत तिह होई।सूर विष्णु पद पावै सोई३श्रीगुरुमाहिमा वर्णन,बृहस्पति अनादरते विश्व रूप वृत्तासुर ब्राहाण हत्या इन्द्र मति, पुनिगुरुकृपासे इन्दासन माप्ति॥राग विलायल हरि हरि हरिहरि सुमिरन करो।हरि चरणार्किंद उरधरो॥हरि गुरु एक रूपनृपजानि।तामें कछु संदेह न आनि।।गुरु प्रसन्न हरि प्रसन्न जोई। गुरुके दुखित दुखित हरि होई।कहीं सो कथासुनोचित्त धारि। कहै सुनै सो तर भवपारि ॥ इंद्र इक दिन निजसभा मॅझारि । वैठयो हुतो सिंहासन डारि सुर ऋपि सब गंधर्व तहां आए। पुनि कुबेरहू तहां सिधाए। सुरगुरुहूं तेहि औसर आयो । इंद्र उठि तिन्हें नशीशनवायो। सुरगुरु लख्यो गर्व तिहिं भयो । तहते फिर निज आश्रमगयो । सुरपति तव लागे पछतान । में यह कहा कियो अज्ञान ॥ पुनि निज गुरु आश्रम चलिगयो । तिहि सुर गुरु दरशन नहिं दयो । यह सुनि असुर इंद्र पुर आए।किए इंद्र सों युद्ध बनाये ॥ इंद्र सहित तब सव सुर भागे। आश्रम अपने सवहिन त्यागे । पुनि सब सुर ब्रह्मापे जाई। कह्यो वृत्तांत सकल शिरनाई। ब्रह्मा कह्यो बुरो तुम कियो । निज गुरुको आदर नहिं दियो । अब तुम विश्व रूप गुरु करो। ता प्रसाद या दुखसों तरो। सुरपति विश्वरूप पै जाइ । दोउ कर जोरकडो शिरना|कृपा करो मम प्रोहित होहु । कियो वृहस्पति मोपर कोहु ॥कह्योपुरोहित होत न भलो । जात तेज तप जपनशि सकलो।पे तुम विनतीबहु विधिकरी।ताते मैं मनमें यह धरी।यह कहि इंद्रहि यज्ञ करायो गयो राज्य अपनो तिन पायो । असुरनि विश्वरूपसों कह्यो । भली भाइ तू सुरगुरु भयो ॥ तुव मनसालमाहिं हम आहिं । आहुति हमें देत क्यों नाहिं । तिह निमित्त तिन्ह आहुति दई । सुर- पति वात जानि यह लई॥ करिके क्रोध तुरत तिहि मारयो। हत्याहेत न मंत्र विचारयो । चारि अंश हत्याके किए । चारों अंश वांटि पुनि दिए ॥ एक अंश धरतीको दियो । असर माहिं अन्न नहिं भयो । एक अंश वृक्षनको दीनो । गोंद होइ प्रकाश तिन कोनो ॥ एक अंश जल को पुनि दयो। बकरि काई जलको छयो । एक अंश सब नारिन पायो । तिनको द्वै रजस्वला छायो त्वष्टा विश्वरूप को वाप । दुखित भयो सुनि सुत संताप ॥ तिन करि क्रोध इक जटा उपारी। वृत्तासुर उपज्यो बल भारी ॥ सो सुरपतिको मारन धायो । सुरपतिहूं ता सन्मुख आयो । जेतक शस्त्र किए प्रहार। सो करि लिए असुर आहारातव सुरपति मनमें भय मान । गयो तहां जहां श्रीभगवान ॥ नमस्कार करि विनय सुनाई । राखि राखि अशरन शरनाई ॥ कह्यो भगवान उपाय न आन। ऋपिदधीचि हाड़ लै दान ॥ ताको तुम निज वज्र बनाव । मरिहै असुर तिसीके घाव ॥ तव सुरपति ऋपिके ढिग जाई। करीविनय बहु शीशनवाई ॥ बहुरि कही अपनी सब कथा। हरि ज्यों कह्यो कह्योपुनि तथा॥तिन कह्यो देह मोहि अति प्यारी । सुरपति तू यह देखि विचारी ॥ यह तनु क्योंही दियो न जावै । और देत कछु मन नहिं आवै । पै यह अंत नरहिहै. भाई । परहित देहु तो होइ भलाई । तनु देवे ते नाहिन भजों। योगधारना करि यह तजी ॥ गर चटाइ मम त्वचा उपारो । हाइनको तुम वज्र सँवाशे ॥ सुरपति ऋपिकी आज्ञा पाई । लियो हाड़ कियो वन वनाई ॥ गो मुख अशुचि तबै ते भयो । ऋपिशुकदेव