सूरसागर। - अथ कविवर सूरदास कृत- श्रीसूरसागर. षष्ठस्कन्ध. ॥ राग विलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरनकरो।आधे पल कहुँ जिन विस्मरो।शुक हरिचरणन को शिरनाइ । राजा सों बोल्यो या भाइ। कहौं हरि कथा सुनौ चित लाइ । सूरतरयो हरिके गुण गाइ॥१॥ अनामिल उद्धार वर्णन । रागविलावल॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो।हरिचरणार्विंद उर धरो॥हरि हरि कहत अजामिल तरयो ॥ ताको यश सब जग विस्तरयो ॥ कहौं शुक कथा सुनो चितलाइ । कहै सुनै सो नर तरि जाइ ॥ अजामिल विप्र कनौज निवासी । सो भयो वृपलीके गृहवासी ॥ जाति पाँति तिन सब विसराई । भक्ष अभक्ष मिलै सो खाई ॥ ता वृपलीके दशसुत भए । पहिले पुत्र भूलि तिन गए ॥ लघु सुत नाम नरायण धरयो । तास हेतु अधिक कार करयो ॥ काल अवधि जव पहुँची आई । तब यम दीने दूत पठाई ॥ नारायण सुत नाम उचारयो । यमदूतनि हरि गुणनि निवारयो । दूतन कह्यो बड़ो यह पापी । इनतो पाप किए हैं धापी । विप्र जन्म इन जूवे हारयो । काहेते तुम हमैं निवारयो। गुणनि कयो इन नाम उचारयो । नाम महातम तुम न विचारयो।जान अजान नाम जो लेई । हरि तिहि वैकुंठ वासा देई ॥ विन जाने कोउ ओपधि खाई। ताको रोग सकल नशि जाई । त्यों जो हरि विनु जाने कहै । सो सब अपने पापनि दहै । अग्नि विना जाने कोउ गहै । तातकालसो ताको है। दोउ पुरुपको नाम एक होइ । एक पुरुषको बोलै कोइ ॥ दोऊ ताके ओर निहारें। हरि हूँऐसो भाव विचारे ॥ हांसीमें कोउ नाम उचारै । हरि जू ताको सत्य विचारै मैंहूं करि कोउ लहै जुनाम। हरि जू देहि तिन्हें निज धाम ॥ जावनके हरि शब्द सुनावै । ताबनते मृग जाहि परावै ॥ नाम: सुनत यों पापपराहीं। पापी हूं वैकुंठसिधाहीं ॥ यह सुनि दूत चले खिसिआई । कह्यो तिन्हि धर्म ! राजसों जाई॥ अवलौं हम तुमही को जानत । तुमहीको दंडदाता मानत ॥ आज गह्यो हम पापी एक । तिन भय मानत हमको देख ॥ नारायण सुत हेत उचारयो । पुरुप चतुर्भुज हमैं निवारयो । उनसों हमरो कछु न वसायो । ताते तुमको आनि सुनायो ॥ औरो दंडदाताको उ आही। हमसों क्यों न बतावै ताही ॥ धर्मराज करि हरिको ध्यान। निज दूतनसों को वखान।। नारायण सबके करतार । पालत अरु पुनि करत संहार ॥ तासम द्वितिया और नकोई । जब चाहै पुनि साजै सोई । ताको जब उन नाम उंचारयो । तव हरि दूतन तुमैं निवारयो।हरिके दूत जहां तहँ रहैं। हम तुम उनकी सुधि नहि लह ॥ जो जो मुख हरि नाम उचारै । हरि गन तिहिं तिहिं तुरत उधारीनाम महातम तुम नहिं जानौनाम महातम सुनो वखानौ।।ज्यों त्यों कोउ हरि नाम ऊचनिश्चय करि सो तरै पै तरै ॥ जाके गृहमें हार जन जाई । नाम कीर्तन करै सो गाई।।
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