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netamour (५२) सूरसागर। वती हरिनी तहां आई । पानी सो पीवन नहिं पाई ॥ सुनी सिंह भय मान अवाजि । मारि फलोंग चली वह भाणि ॥ कूदत ताको तनु छुटि गयो। ताके छौना सुंदर भयो । भरत दया ता उपर आई। ल्याये आश्रम ताहि लिवाई ॥ पोपे ताहि पुत्र की नाई । खाइ आप तब ताहि खवाई ॥ सोवै जब तब ताहि सोआवै । तासों क्रीड़त अति सुख पावै । सुमिरन भजन विसरि सब गयो एक दिन मृगछोना कहि गयो । ताके मोह भरत सव भयो। सव दिन विरह अग्नि अति तयो॥ संध्या समय निकट नहिं आयो। ताके ढूंढन हित उठि धायो ॥ पग को चिह्न पृथ्वी पर देखि कह्यो पृथ्वी जहां धन पग रेखि ॥ वहुरो देख्यो शशिकी ओर । तामें दख्यो श्यामता कोर ॥ कहन लगो मम सुत शशि गोद । तासेती शशि करत विनोद ॥ ढूंढत २ वहु श्रम पायो। पै मृगछौना नहिं दरशायो । मृगको ध्यान हृदय नहिं गयो । भरत देइतजिकै मृग भयो ॥ पूरव जन्म ताहि सुधि रही। आप आप सों तब यह कही ॥ मैं मृगछौना में चित दयो।ताते मैं मृगछौना भयो। अब काहू से संग न करौं । हरि चरणाविद उर धरौं ॥ संग मृगनिहूं को नहिं करै । हरे घास हू सो नहिं चरै ॥ सूखे पातर तिनके खाई । या विधि डारयो जन्म विताई ॥ मृग तनुतजि ब्राह्मण तनु पायो । पूर्व जन्म तहां सुमिरन आयो ॥ मन में यह बात ठहराई । होय असंग भजों यदुराई ॥ पिता पढ़ावै सो नहिं पढ़े । मनमें रामनाम नित रहे। पिता तास कालवश भयो। भ्रातनिहं श्रम बहु विधि ठयो। पैसो हरि हरि सुमिरतर है। और कछू विद्या नहिं गहै । जड़ स्वरूपसो जहँ तहँ फिर । अशन बसनकी सुधि नहिं धरै ।। जैसो दहि सुतैसो खाई । नहिं तो भूखोई रहि जाई ॥ कृपिरक्षक भाइन तव कीनो । उन तहाँ हरिचरण- न चित दीनो ॥ तहँ ही अन्न देहिं पहुँचाई। जो न देहिं भूखो रहिजाई । भीलराव निज लोगनि । कह्यो। मैं कालीसों यह प्रणगयो। तुव प्रसाद मम गृह सुत होई । नरवलि देहुँ भयो वर सोई॥ तुम काहू धन दै लै आवहु । मेरे मनकी आश पुजावहु ॥ ते खोजत खोजत तहँ आए । जहां जड़ भरत कृषी में छाए।।देख्यो भरत तरुण अति सुंदर स्थूल शरीर रहित सव द्वंदर ॥ निज नृप पास बांधि ले आए। नृपतेहि देखि बहुत सुख पाए॥ विप्रन कह्यो ताहि अन्हवावहु । याके अंग सुगंध लगावहु ॥ तिहि देवी मंदिर ले गए। खड्ग रावके कर तिहिं दए । जब राजा तिहिं मारन लाग्यो । देवी काली मन धग धाग्यो । हरि जन मारे हत्या होई । ज्यों नहिं मरै करों अब सोई॥ देवी निकसि रावको मारयो । भरत साथ यह वचन उचारयो॥ जाने विना चूक यह भई । मैं उनसों ऐसी नहिं कही ॥ विप्रन वेद धर्म नहिं जान्यो। ताते उन ऐसो वलि ठान्यो ॥ यह सुनि बांते भरत सिधायो । राजासों शुक कहि समुझायो। नहीं त्रिलोकी ऐसो कोई । भक्तनको दुख देसकै जोई। ज्यों शुक नृपको कहि समुझायो । सूरदास त्योंही करिगायो॥ ३॥ नड़ भरतरहूगण गोष्ठ वर्णनाराग विलावल।हरि हरिहरि हरि सुमिरन करो। हरि चरणारविंद उर धरोनृिपति रहूगणके मन आई।सुनिए ज्ञान कपिलसों जाई॥चढ़ि सुख आसन नृपति सिधायो। तहां कहार एक दुख पायो। भरत पंथ पर देख्यो खरयो। वाके बदले ताको धरयो। तिनसों भरत कछू ना कह्यो । सुख आसन कांधे पर गह्यो। भरत चले पथ जीवनिहार । चलै नहीं ज्यों चलें कहार ॥ नृपति को मारग समआह॥चलत न क्यों तुम सूधो राहोकयो कहारनि हमैं न खोरिनियो कहार चलत पग झोरि ॥ कह्यो नृपति मोटो तू आहि। बहुत पंथ हू आयो नाहिं तू जो टेढो टेढो चलत। मरिवेकी नहिं भय हिय धरत ॥ ऐसी भांति नृपति बहु भाखी। मुनि जड़भरत हृदयमें राखी ॥ मन मन ।