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(५०) सूरसागर। फिरत भुलायो । फिार चेत्यो जव चेतन है कार आपुनही तनु छायो ॥राज कठे मणि भूषण भ्रम भयो कह्यो गवायो । दियो वताइ और सत जन तब तनुको पापन शायो । सपने माहिं नारिको भ्रम भयो बालक कहूं हिरायो। जागि लख्यो ज्योंको त्योंही ना कहुँ गयो न आयो । सूरदास समुझे की यह गति मनही मन मुसकायो । कहि न जाइ या सख की महिमा ज्यों गूगो गुर खायो ॥ १२ ॥ इति श्रीमद्भागवते-सूरसागरे श्रीसूरदास कृते चतुर्थःस्कंधः समाप्तः । M SANCHAR RESS Saras - -