चतुर्थस्कन्ध- | सोई॥ पै कुबुद्धि ठहरान न देइ । राजाको अंकम भरिलेइ ॥ राजा पुनि तव क्रीडा करै छन भर हू अंतर नहिं धरै ।। जव अखेट पर इच्छा होइ । तव स्थ साजि चलै नृप सोइ ॥ जा द्वारे नृप इच्छा करै । ताही द्वार होइ निःसरै ॥चादिक इन्द्री दर जानो।रूपादिक सव वचन प्रमानो॥ मन मंत्री सो रथ हँकया। रथमें पुण्य पाप दोउ पहिया॥ अश्व पांच ज्ञानन्द्रिय पांच । विपय अखेटक नप मनरांच ॥ राजा मंत्रीसा हितमान । ताके दुख सुख दुख सुख जान ॥ नरपति ब्रह्म अंश सुखरूप । मन मिलि परयो दुःखके कूप ॥ ज्ञानी संगति उपजे ज्ञान । अज्ञानी सँग होइ अज्ञान ॥ मंत्री कहै अखेट सो करै । विपय भोग जीवनि संहरै ॥ निशिभय रानी पै फिर आवै । सोवतसो तिहि बात सुनावै ॥ आज कहा उद्यम करि आए। कहै वृथा भ्रमि भ्रमि श्रम पाए । काल्हि जाय अस उद्यम करौं । तेरे सव भंडारनि भरौं । सब निशि याही भांति विहाई । दिन भये बहुर अखेटक जाई ॥ तहां जीव नाना संहरै। विपय भोग तिहि को हत करै । विपय भोग कवहूं न अपाई। यों ही नृप नित आवे जाई । एक दिन नृप निज मंदिर आयो। रानीसों अह निशि मन लायो॥ ताके पुत्र सुता बहु भए। विपय वासना नाना सुये। कान लागिके अस कह्यो जाइ । जरा काल कन्या पुर आइ ॥ कह्यो प्रिया अब कीजै सोई । देखे नृपति कहा धौ होई ॥ देह शिथिल भई उठ्यो न जाई । मानो दीनों कोट गिराई ॥ कह्यो प्रिया अव कीजे सोइ । देखो नृपति काह धो होइ॥ पुनि ज्वर दो दीनी पुर लाई । जरन लगे पुर लोग लोगाई ॥ कह्यो प्रिया अवकीजै सोई । देखो नृपति काहधौं होई ।। मरन अवस्थाको नृप जानै । तोहू धरै न मनमें ज्ञान ।। मम कुटुंबकी कहा गति होई। पुनि पुनि मूरख सोचे सोई ।। कालभए तिहि पकर निकारयो । सखा प्राणपति तक न संभारयो । रानीही में मनरहिगयो । मरि विदर्भकी कन्या भयो। बहुरो तिन सतसंगति पाई। कहीं सु कथा सुनौ चित लाई ।। मेघ ध्वज सो भयो विवाह । विष्णु भक्ति को तिहि उत्साह ॥ ता संगति नव सुत तिन जाये । श्रवणा दिक मिलि हरि गुण गाये ॥ या विधि तिहि निज आयु विताई । पूर्व पाप सब गए विलाई ॥ मरण अवस्था जब नजिकाई । ईश सखाके मन यह आई ॥ बहुत जन्म इन भ्रम भ्रम कीनो। पेइन मोकों कबहुं न चीनो॥ तव दयालु दरशन दीनो । कबहुं मूढ तै मोहिं न चीनोविपय भोग हीमें पगरयो । जान्यो मोहिं और कहुँ योग ।। मैंतो निकट सदाही रहौं । तेरे सकल दुख नको दहों। यह सुनिक तिहि उपज्यो ज्ञान । पायो पुनि तिहि पद निर्वान ॥ यह कहि नारद नृपसों कही। तेरीह तेसी गति भई में जु कहाँ सो देखि विचार । विन हरि भजन नहीं निस्तार । हरिकी कृपा मनुष्य तनु पाव । मूरख विपय हेतु सुगवावै ॥ तिन अंगनको सुनो विवेक । खरची लाख मिले नहिं एक ॥ नैन दरश देखनको दिये । मूरख लखि परनारी जिए ॥ श्रवण कथा सुनिवको दीने । मूरख परनिंदा हित कीने ॥ हाथ दए हरि पूजा हेत । तिहिं कर मूरुख पर धन लेत ॥ पग दए तीरथ जवे काज । तिनसों बलि वित करत अकाज ॥ रसना हार सुमिरन को करी। ताकर परनिन्दा उच्चरी ।। यह सुनि नृप कीनो उनमान । मे सुई नृपति न दूसर आन नारद ज़ तुम कियो उपकार । डूबत मोहि उतारयो पारनृपति पाइ पुनि आतमज्ञान ॥ राज्य छांडि करि गए उद्यान । यह लीला जो सुनै सुनावै ॥ सूर हरि कृपा ज्ञानको पावै । शुकज्यों राजाको समुझायो । मेहूंता अनुसार सुनायो ॥११॥ राग नया ॥ अपुनपो आपुन हीमें पायो। ॥ शब्दहि शब्द भयो उजियारो सतगुरु भेद बतायो ॥ जो कुरंग नाभी कस्तूरी ढूंढत -
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