चतुर्थस्कन्ध-४ (१७) मोहिं नारद । मोसों कहो सु अपनो हारद ॥ राजा पास कहों सो जाई। लेहै मान नृपति सत भाई ॥ध्रुव विचार तव मनमें कियो। सुमिरत नारद दरशन दियो । जब मैं भक्ति श्यामकी करिहौं । नहिं जानत जु कहा मैं पैहौं । कह्यो सो नारद करो सहाई । करो भक्ति हरिकी चित लाई ॥ तुम नारायण भक्त कहावत । काहेको तुम मोहिं फिरावत ।। तब नारद ध्रुवको दृढ़ देखि । कयो देउँ मैं ज्ञान विशेखि ॥ मथुरा जाय सुसुमिरन करो । अरु हरिध्यान हृदयमें धरो। मथुरा जाइ सोई उन कियो । तव नारायण दरशन दियो॥ध्रुव स्तुति कीनी बहु भाई । तब हरि |जू बोले मुसुकाई ॥ध्रुव जो तेरी इच्छा होई । मांग लेहु मोसों अब सोई ॥ प्रभु मैं तुमरो दरशन | लह्यो। मांगनको पाछे कहा रह्यो । हरि को राज्य हेतु तप कियो। ध्रुव प्रसन्न होइ मैं तोहिं दियो । अरु तेरे हित कियो स्थान । देहि प्रदक्षिण जहँ शशि भान ॥ ग्रह नक्षत्र हूं त्योंही फिरै । तू भव अटल न कवहूं टरै ॥ अरु पुनि महाप्रलय जव होई । मुक्तिस्थान पाइहौ सोई ॥ यह कहि हरि निज लोक सिधारे। ध्रुव निजपुरको पुनि पग धारे । जव ध्रुव पुरके बाहर आये। लोगन नृपको जाइ सुनाये। उनके कहे न मनमें आई। तब नारद कह्यो नृपसों जाई ॥ध्रुव आयो हरिसों वर पाई। राजा ताहि जाहि मिलि धाई ॥ नृप सुनि मन आनन्द बढ़ायो । अंतः पुरमें जाइ सुनायो । पुनि नृप कुटुंब सहित तहँ आये। नगर लोग सब सुनि उठि धाये ॥ध्रुव राजाके चरणन परयो। राजा कंठ लगाइ हित करयो ॥ पुनि सुसुरुचिके चरणनपरयो । तासों वचन ध्रुव उच्चरयो ॥ तुम उपदेश मैं हरिहि धियायो । यह उपकार न जात मिटायो ॥ पुनि माताके पाँइन परयो । माता ध्रुवको अंकम भरयो । ध्रुव नृप सिंहासन बैठाए । नृपतप कारण वनहिं सिधाये ॥ सप्तद्वीप राज्य ध्रुव कियो । शीतल भयो मातको हियो । यों भयो ध्रुव वर देन अवतार । सूर कह्यो भागवत अनुसार ॥ ८॥राग आसावरी ॥ध्रुव विमाता वचन सुनि रिसायो । दयाल कृपाल गोपाल करुणामई मातुसों सुनि तुरत शरन आयो । बहुरि जव वन चल्यो पंथ नारद मिल्यो कृष्ण निज धाम मथुरा बतायो । मुकुट शिर धरे वनमाल को स्तुभगरे चतुर्भुज श्याम सुंदर धियायो । भये अनुकूल हरि दियो तेहि तुरत वर जगत करि राज पद अटल पायो ॥ सूरके प्रभुकी शरन आयो जुनर करि जगत भोग वैकुंठ सिधायो ॥९॥ पृथु भवतार वर्णन । राग विलावल ॥ धारि पृथु रूप हरि राज्य कियो । विष्णु की भक्ति परवतीजगमें करी प्रजाको सुख सकल भांति दियो । वेन नृप भयो बलवंत जब पृथ्वी पर ऋपिनसों कह्यो जप तपनिवारो। होइ तिहिको पतन शाप ताको दयो मारिकै ताहि जगदोपदारयो ॥ भयो प्रगट आराज तब सब ऋपिन मंत्र कार वेनकी जांघको मथन कीनो जांधके मथे ते पुरुष परगट भयो श्याम तिहि भीलको राज्य दीनो ॥ बहुरि जब ऋपिन भुजदक्षको मथ कियो लक्ष्मी सहित पृथु दरश दीयो । पहिरि आभरन पुनि राज्य लागे करन आनि सब प्रजा दंडवत कीयो । बहुरि वेदी जननि आय स्तुति करी इन्द्र अरु वरुन तुम तूल नाहीं। कह्यो नृप बिना प्राक्रम न स्तुति करौ विना किए मूढ़ सुनि हर्प जाहीं ॥ करो भगवानको यश सदा गुणीजन जो जगत सिंधुते पार तारें । किये नरकी स्तुति कौन कारज सरै करै सु आपनो जन्म हाकहो तिन तुम्हें हम मनुप जानत नहीं जगतपितु जगतहित देह धारयो।करोगे काजजोकि योन काहू नृपति किए जस जाय हमदोप सारोबहुरि सब प्रजामिलि आय नृपसों कह्यो विनाआजी विका मरत सारी । नृप धनुप वाण धरि पृथ्वी पर कोप कियो तिन गजरूप विनती उचारी ॥ - -
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१४०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।