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(४६) सूरसागर। सिधारे । सुर गंधर्व गये पुनि सारे ॥ या विधि भयो यज्ञ अवतार । सूर कह्यो भागवत अनुसार men अथ संक्षिप्त यज्ञपुरुष अवतार कथा । राग मारू ॥ यज्ञ प्रभु प्रगट दरशन दिखायो । विष्णु विधि रुद्ध मम रूप ए तीनि हूँ दक्षसों वचन यह कहि सुनायो । दक्ष रिसि मानि जव यज्ञ आरंभ कियो सबनको सहित पत्नी हकारयो। रुद्र अपमान कियो सती तव जिय दियो रुद्धके गणनि ताको सहारयो ॥ बहुरि विधि जाइ क्षमवाइ कै रुद्रको विष्णु विधि रुद्र तहां तुरत आये । यज्ञ भारंभ मिलि ऋषिन बहुरो कियो शीश अज राखिकै दक्ष जिवाए।कुंडते प्रगट यज्ञपुरुष दरशन दयो श्यामसुंदर चतुर्भुज मुरारी । रूप प्रभु निरखि दंडवत सवहिनि कियो सूर ऋषि सबान स्तुति उचारी ॥६॥पार्वती विवाह वर्णन || सती हिए धरि शिवको ध्यान नाम पार्वति है अवतरी। पार्वती र प्रापत भई । तबहिं हिमाचल तासों कही । तेरो कासों कीजै व्याह । तिन करो मेरो पति शिव आह ॥ कह्यो हिमालय शिव प्रभु ईश । हमको उनसों कैसी रीस ॥ पार्वती शिव हित तप करयो। तब शिव आइ तहां तिहि वरयो। पार्वती विवाह व्यवहार । सुरकह्यो भागवत अनुसार ॥६॥ ध्रुव कथा । राग बिलावल।स्वयंभू मनुके सुत भए दोई। तिनकी कथा कहीं सुन सोई॥ उत्तानपाद इक नृप को नाम। द्वितिय प्रियव्रत अति अभिराम ।। उत्तानपादके ध्रुवसुत भए। हरि जू ताको दरशन दए । बहुरि दियो ताको स्थान। जहां प्रदक्षिण दे शाश भान ॥ कहाँ सुकथा सुनो चितधार । सूर कह्यो भागवत अनुसार ॥ ७॥ ध्रुव वरदेन अवतार वर्णन ॥ राग बिलाबल हरि हरि हरि हरि सुमरन करो। हरि चरणार्विन्द उर धरो॥ कहौं अव ध्रुव पर देन अवतार। राजा सुनो ताहि चितधार ॥ उत्तानपाद पृथ्वीपति भयो । ताको यश तीनों पुर छयो । नाम सुनीति वड़ी तिहि नारि। सुरुचि दूसरी ताकी नारि ॥ भयो सुरुचिते उत्तम वार। सुनीति नारिक ध्रुव कुमार ॥ राजा को सुसुरुचिसों नेह । वस सुनीत दूसरी गेह ॥ इक दिन नृपति सुरुचि गृह आए। उत्तम कुँवर गोद बैठाए ॥ध्रुव खेलत खेलत तहँ आए । गोद बैठिवेको पुनि धाए॥राजा त्रियडर गोद न लीनो । ध्रुव कुमार रोइ तव दीनो ॥ तवहि सुरुचि ध्रुवको समुझायो । तैंगोविंद चरण नहि घ्यायो ॥ जो हरिको सुमिरन तू करतो । मेरे गर्भ जानि अवतरतो॥राजा तव तोह लेतो गोद । तबहिं गोदमें करतो मोद।।अजहूं तू हरिपद चित लाई । होहिं प्रसन्न तोहि यदुराई ॥ वचन सुरुचि बाण सम लागे । ध्रुव आयो मातापै भागे ॥ माता ताको रोदन देखि । दुख | पायो मन माँह विशेखि ॥ कह्यो पुत्र तोको केहि मारयो। ध्रुव अति दुखित वचन उच्चारयो । माता ताको कंठ लगायो। तब ध्रुव सब वृत्तांत सुनायो।।कह्यो सुत सुरुचि सत्य यह कह्यो । विनु हरिभक्ति पुत्र मम भयो।।अजहूं जो हरिपद चित लैहो। सकल मनोरथ मनको पैहो जिन जिन हरि चरणन चितलाए।तिन तिन सकल मनोरथ पाए ॥ पितृ तुव ब्रह्मा तप कियो । हरि प्रसन्न होय तिहि वर दियो ॥ तिहिको सर्व जगत् विस्तार । जाकी नाही पारावार ॥ बहुरि स्वयंभू मनु तप कीनो। ताहूको हरिजू वर दीनो।ताको भयो वहुत परिवार। नर पशु कीट गनत नहिं पारतूहूजो हरिहित' तप करिहै । सकल मनोरथ तेरो पुरिहै ॥ ध्रुव एहि सुनि वनको उठिचले । पंथमाहि तेहि नारद मिले ॥ देख्यो पांच वरसकोबाल । वचन सुरुचि नहिं सक्यो सँभाल|अब मैंहूं याको दृढ़ देख्यों दृढ़विश्वास बहुरि उपदेशों ॥ध्रुवसे कह्यो क्रोध परिहरौ । मैंजो कहौं सोचितमें धरौ॥ मेरेसंग राजा पै आवौ । दे आवौं तोहि राज्य धन गावो ॥ भक्तिभावको जो तोहि चाह । तोसों नहिं है || है निर्वाह ॥ बहुतक तपसी पाच पचि मुए। पै तिहि हरि दरशन नहिं हुए ॥ मैं हरिभक्त नाम |