- - तृतीयस्कन्ध-३ (४३) सुधि आवै तहां॥नवम मास पुनि विनती करै।प्रहाराज यह दुख ममटरौ।ह्याते जो मैं वाहर परौं। अहर्निश भक्ति तुम्हारी करौं । अरु मोपे प्रभु किरपा कीजै । भक्ति अनन्य आपुनी दीजै ॥ अरु यह ज्ञान नचितते टरै । बार वार यों विनती करे।।दशम मास पुनि वाहरआवै। तब यह ज्ञान सक- ल बिसरावै ॥ वालापन दुख बहुविधि पावै । जीभ विना कहि कहा सुनावै।।कवहूं विष्ठामें रहजाई कवहूं माती लागै आई॥ कवहूं जुवां देइ दुखभारी। तिनको सो नहिं सकैनिवारी॥ पनि जव पष्ट वर्षको होई। इत उत खेलन चाहत सोई ॥ माता पिता निवारै जवहीं । मनमें दुख पावै सो तवहीं माता पिता पुत्र तेहि जानै । वह उनसे तव नातो मान । वरसँ दश व्यतीत जव होई । वहार कि- सोर होय पुनि सोई ॥ सुंदरनारी ताहि विवाहै । अशन वसन बहुविधि सो चाहै ॥ विना भाग सो कहते आवै। तब वह मनमें बहु दुख पाये ॥ पुनि लक्ष्मी हित उद्यम करीअरु जब उद्यम खा- लीपरै । तब वह रहे वहुत दुखपाई।कहँ लौं कहाँ कह्यो नहिं जाई । बहुरो ताहि बुढ़ापो आवै । इन्द्री शक्ति सकल मिट जावेकानन सुनै ऑखि नहिं सूझै । वात कहै सो कछु नहिँ झेखैिवेको जब नाहिंन पावै । तव बहु विधि मनमें पछतावै ॥ पुनि दुख पाइ पाइ सो मरै। विनुहरि भक्ति नरकमें परै ।। नरक जाइ पुनि बहु दुख पावै । पुनि पुनि योंही आवै जावै॥ तऊ नहीं हरि सुमिरण करै । ताते बार बार दुख भरे ॥१६॥ भन महिमा ॥ भक्त सकामीहं जो होई । क्रम क्रम करिकै उधरै सोई ॥ शनै शनै विधि पावे जाई । ब्रह्म संग हरिपदहि समाई ॥ निष्कामी वैकुंठ सिधाव। जन्म मरन तिहि बहुरि न आवैत्रिविधि भक्ति अब कहों सुनु सोई । जातेंहरिपद प्रापति होई।।एक कर्मयोग को करें।वर्ण आश्रम धरि निस्तरै।।अरु अधर्म कवहूं नहिं करै । ते नर याही विधि निस्तरे। एक भक्ति योग को करै । हरि सुमिरन पूजा विस्तरै ॥ हरिपद पंकज प्रीति लगावै । क्रम क्रम करि हरिपदहि समावै । ते हरिपद को याविधि पावै॥क्रम क्रम करि हरिपदहि समावे ॥एक ज्ञान योग विस्तरै । ब्रह्म जानि सवसों हित करै । कपिलदेव वहुरो यों कह्यो। मैं तुमें संवाद जुभयो । कलियुगमें यहि सुनिहै जोई। सो नर हरिपद प्रापति होई ॥ १७ ॥ देवहूति हरिपदगाति । देवहूति ज्ञानको पाई । कपिलदेवको कह्यो शिरनाई ॥ आगे मैं तुमको सुतमान्यो अब मैं तुमको ईश्वर जान्यो॥ तुम्हरी कृपा भयो मुहि ज्ञान । अव नव्यापिहै मोहिं अज्ञान ॥ पुनि वनजाइ दियो तनु त्याग । गहिके हरिपदसों अनुराग ॥ कपिलदेव सांख्य जो गायो। सो राजा मैं तुम्हें सुनायो॥ याहि समुझि जु रहे लवलाई । सूर बसै सो हरिपुर जाई ॥१८॥ इति श्रीमद्भागवते सूरसागरे कविवर श्रीसूरदास कृते तृतीयस्कंधः समाप्तः ॥ ४ ॥ - manoramo m so-
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