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तृतीयस्कन्ध-३ माहिं ज्यों रस है सान्यो । जोयो तिनि आतम रस सार । ऐसी विधि जान्यो निरधार ॥ यों लखि गहि हरिपद अनुराग । मिथ्या तनुको कीनो त्याग ।। तनुहि त्यागिकै हरि पद पायो नृप सुनि हार स्वरूप उर लायो॥ ११ ॥ अथ देवहूति माताको मन कपिल मुनिसों ॥ इहां कपिल सों माता कहो । प्रभु मेरो अज्ञान तुम दहो ॥ आतमज्ञान देहु समुझाई । जाते जन्म मरण दुख जाई। कह्यो कपिल कहों तुमसों ज्ञान । मुक्त होइ नर ताको जान ॥ मुक्ति विविधके लक्षण कहौं । तेरे सब संदेहे दहौं ॥ मम सो रूप जो सब घट जान । मग्न रहे तजि उद्यम आन ॥ अरु सुख दुख कछु मन नहिं ल्यावै। माता सों नर मुक्ति कहावै ॥ और जु मेरो रूप न जाने । कुटुंब हेत नित उद्यम ठाने । जाको इहि विधि जन्म सिराई । सो नर मरिक नरक सिधाई ॥ ज्ञानी संगति उपजै ज्ञान । अज्ञानी सँग हो अज्ञान ।। ताते साधु संग नित करना । जाते मिटै जन्म अरु मरना ॥ स्थावर जंगम में मोहिं जाने । दयाशील सब सों हित ठाने । सत संतोप दृढ करै समाध। माता ताको कहिये साध ॥ काम क्रोध लोभ परिहरै । द्वंद्व रहित उद्यम नहिं करै। ऐसे लक्षण हैं जेहि माहीं । माता तिनको साधु कहाहीं ॥ जाको काम क्रोध नित व्यापै । अरु पुनि लोभ सदा संतापै॥ ताहि असाधु कहत कवि सोई । साधु भेष धरि साधु न होई॥ संत सदाहरिके गुण गावें। सुनि सुनि लोग भक्ति को पावें। भक्ति पाइ पाएँ हरि लोक । तिन्हें न व्यापे इर्ष न सोक ॥ देवहूति कह भक्ति सुकहिये । जाते हरिपुर बासा लहिये ॥ १२ ॥ भक्ति प्रश्न ॥ अरुसुभक्ति कीजै किहिं भाई। सोऊ मोको देहु वताई ॥ माता भक्ति चारि परकार। सत रज तम गुण सुधा सार।। भक्ति एक पुनि बहुविधि होई ।ज्यों जल रंग मिलि रंगसुहोई । भक्ति सात्विकी चाहत मुक्त । रजोगुणी धन कुटुंवअनुरक्त ॥ तमोगुणी चाहे या भाई । ममवैरी क्योंही। मरजाई ॥ सुधाभक्ति मोक्ष को चाहै । मुक्तिहूंको नाही अवगाहै। मन क्रम वच मम सेवा करे | मनते भव आशा परिहरै ॥ऐसो भक्त सदा मोहिं प्यारो। इक छिन जाते रहौंन न्यारो ॥ ताके मैं हित मम हित सोई । जासम मेरो और न कोई । त्रिविध भक्ति मेरे है जोई॥ जो मांगै तिहिदेहुँ मैं | सोई ॥ भक्त अनन्य कछू नहिं माँगे । ताते मोहिं सकुच अति लागे ।। ऐसो भक्त जानि है जोई । जाके शव मित्र नहिहोई ॥ हरिमाया सवजग संतापै । ताको माया मोह न व्यापै ॥ १३ ॥ हरि माया मश्न । कपिल कहा हरिको निजरूप । अरु पुनि माया कौन स्वरूप ॥ देवहूति जब याविधि कह्यो । कपिलदेव सुनि अति सुख लह्यो । कयो हरिके भय रवि शशि फिरै । वायु वेग अतिशय नहिं करै ।। अगिनि रहै जाके भय माहीं। सो हरिमाया जा वश माहीं॥ मायाको त्रिगु. णातम जानो। सत रज तम ताको गुण मानो ॥ तिन प्रथमे महतत्व उपायो । ताते अहंकार प्र- गटायो॥ अहंकार कियोतीन प्रकारा मनते ऋषि मनसा तरुचार॥रजगुणतेइंद्रिय विस्तारी । तम गुण ते तन्मात्रा सारी ॥ तिनते पांच तत्त्व प्रगटायो । इहि सबको इक अंड बनायो ॥अंड सुजड़ चेतननहिं होई । तव हरिपद माया मन पोई ।। ऐसी विधि विनती अनुसारी। महाराज विनुशक्ति तुम्हारी ॥ यह अंडा चेतन नहि होई । करौ कृपा हरि चेतन सोई॥तामें शक्ति आपुनी धरी। चच्छा दिक इंद्री विस्तरी॥ चौदह लोक भये तामाहिं । ज्ञानी तिहि वैराट कहाहि ॥ आदि पुरुप चैतन्य को कहत । जोहै तिहूं गुणनते रहिताजड़ स्वरूप सब माया जानो। ऐसो ज्ञान हृदयमें आनो। जवलगिहै जियको अज्ञान । चेतनको सो सके न जान ॥ सुत कलत्र को अपनो मान । अरु ति- नसों ममत्व बहु ठाने ॥ जोकोइ सुख दुख सपने जोई। सत्य मानले तिनको सोई ॥ जव