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(३७) द्वितीयस्कन्ध-२ सूर प्रभू गुण गात ॥२४॥ अथ आत्मज्ञान ॥ राग नट ॥ जौलों सतस्वरूप नहिं सूझत । तौलौं मृगमद नाभि विसारे फिरत सकल-वन बूझत।अपनो ही मुख.मलिन मंदमति देखत दर्पण माहिं। ता कालिमा मेटवे कारण पचत पखारत छाहि ।। तेल तूल पावक पुट भरि धरि वनै न विना प्रकाशत । कहत बनाइ दीपकी बतियां कैसे धौं तम नाशत ॥ सूरदास यह गति आये विनु सब दिन गने अलेखे । कहा जाने दिनकरकी महिमा अंध नयन विनु देखे ॥ २५॥ अपुनपो आपुनही विसरयो।जैसे श्वान कांच मंदिरमें भ्रमिभ्रमि भूसि मरयो।हरि सौरभ मृग नाभि वसतहै दुम तृण सूपि मरयो।ज्यों सपने में रंक भूप भयो तस करि अरि पकरयो।।ज्यों केहरि प्रतिक्वि देखिके आपुन कूप परयो । ऐसे गज लखि स्फटिक शिला में दशननि जाइ अरयो । मर्कट मुट्टि छोड़ि नहिं दीनी घर घर द्वार फिरयो । सूरदास नलनीको सुवटा कहि कौने जकरयो॥२६॥ अथ विराट रूप वर्णन ॥ राग केदारा ॥ नैननि निरखि श्यामस्वरूप । रह्यो घट घट व्यापि सोई ज्योतिरूप अनूप । चरण सप्त पाताल जाके शीश है आकाश । सूर चंद्र नक्षत्र पावक सर्व तास प्रकाश ॥२७॥ अथ भारती। हरिजूकी आरती वनी। अति विचित्र रचना रचि राखी परति न गिरा गनी ॥ कच्छप अध आसन अनूप अति डांडी शेपकनी। मही सराव सप्तसागर घृत वाती शैल धनी।।रवि शशि ज्योति जगत परिपूरण हरत तिमिर रजनी ! उड़त फूल उडगन नभ अंबर अंजन घटा घनी ॥ नारदादि सनकादि प्रजापति सुर नर असुर अनी। काल कर्म गुण अरुण अंत कछु प्रभुइच्छा रचनी । यह प्रताप दीप सुनिरंतर लोक सकल भजनी । जाके उदित नचत नाना विधि गति अपनी अपनी ॥ सूरदास सब प्रकृति धातुमय अति विचित्र सजनी ॥ २८ ॥ अथ नृपविचार । रागगूनरी ॥ श्रीशुकके सुनि वचन नृप लाग्यो करन विचार । झूठे नाते जगतके सुत कलत्र परिवार ।।चलत न कोऊ सँग चले मोरि रहैं सुख नार । आवत गाढे कामह- रि देखो सूर विचार ॥ २९ ॥ राग गूगरी हरि विनु कोऊ काम न आयो । इस माया झूठी प्रपंच लगि रतनसों जन्म गवायो॥ कंचनकलश विचित्रर करि रचि पचि भवन बनायो । तामें ते तिहि छिन ही काट्यौ पलभर रहनि न पायो । हौं तेरे ही संग जरोंगी यह कहि त्रिया धूति धन खायो। चलत रही चित चोरि मोरि मुख एक न पग पहुँचायो । बोलि वोलि सव वोलि मित्रजन लीनो सो जिहिं भायो । परयो काज अंतकी विरियां तिनिही आनि बँधायो । आशा कार करि जननी जायो कोटिक लाड लडायो । तोरि लयो कटिहूंको डोरा तापर वदन जरायो । पतितउधारन गणिका तारन सो मैं शठ विसरायो। लियो न नाम नेकहूं धोखे सूरदास पछतायो॥ ३०॥ राग देवगंधार ॥ सकल तजि भजि मन चरण सुरारि । श्रुति स्मृति मुनि जन भापत मैं हूं कहत पुकारि ॥ जैसे स्वप्ने सोइ देखियत तैसे यह संसारि । जात विल है छिनक मात्रमें उपरत नैन किवारि ।। वार वार कहत मैं तोसों जन्म न जूवा हारि। पाछे भई सुभई सूरजन अजहूं समुझि संभारि ॥ ३१ ॥ राग गूनरी ॥ अजहूं सावधान क्यों न होई । माया विपम भुजंगनिको विप उतरचोनाहिं न तोई।कृष्ण सुमंत्र जियावन मूरी जिन जग मरत जिवायो । वारंवार निकट श्रवण नि लै गुरु गारुड़ी सुनायो ॥ भौतिक देह जीय अभिमानी देखत ही दुख लायो । कोउ कोउ उवरच साधु संगति जिन राम जीवन पायो। जाग्यो मोह मयूर प्रति छूटे सुयश गीतकेगाये । सूर मिटै अज्ञान मूळ ज्ञान मूलके खाये ॥ ३२॥ नृपको वचन शुकदेव मति । नमो नमो करुणा. निधान । चितवत कृपाकटाक्ष तुम्हारी मिटिगयो तम अज्ञान ।। मोहनिशाको लेश रह्यो नहिं भयो विवेक % 3D