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सूरसागर। ईश सवहूंको ताहि न चित्त दियो । प्रगट जानि यदुनाथ विसारै आशामद लु पियो॥ चारि पदा- रथको प्रभुदाता तिनै न मिलौ हियो। सूरदास रसना वशं अपने टेरि न नाम लियो ॥१६॥ ॥ अथ सत्संग महिमा ॥ राग केदारा॥ जादिन संत पाहुने आवत । तीरथ कोटि स्नान करें फल जैसो दरशन पावत ॥ नेह नयो दिन दिन प्रति उनको चरण कमल चित्त लावत । मन वच क्रम औरन, नहिं जानत सुमिरत औ सुमिरावत। मिथ्यावाद उपाधि रहित है विमल विमल यश गावत बंधन कर्म कठिन जे पहिले सोऊ काटि वहावत।। संगति रहै साधुकी अनुदिन भव दुख दूरि नशावत । सूरदास या जन्म मरण ते तुरत परमगति पावत ॥ १७॥ अथ भक्ति साधन । राग धनाश्री ॥ हरि रसतो कवहूं जाइ लहियै । गये सोच आये नहिं आनँद ऐसो मारग गहिये । कोमल वचन दीन ता सबसों सदा अनंदित रहियै । वाद विवाद हर्प आतुरता इतो दंड जिय सहियै ॥ ऐसी जो आवे या मनमें यह सुख कहँ लौं कहिये । अष्ट सिद्धि नव निद्धिः सरप्रभु पहुँचे जो कछु चहिये ॥ १८॥ राग धनाश्री ॥ जोलौं मन कामना न छूटै । तो कहा योग यज्ञ व्रत कीने विनु कन तुस को कूटै ॥ कहा स्नान किये तीरथके अंगभस्म जट जूटै । कहा पुराणन पढे जु अठारह उर्ध्व धूमके टै॥ जग सोनाकी सकल बड़ाई इहिते कछू न खूटै । करनी और कहै कछु और मन दशहूं दिश । लूटै ॥ काम क्रोध मद लोभ शत्रु हैं जो इतनो सुनि छूटै। सूरदास तवहीं तम नाशै ज्ञान अग्नि झर फूटै ॥ १९ ॥ राग विलावल ।। भक्तिपंथको जो अनुसरै । सुत कलत्र सो हित परिहरे ॥ अशन वसन की चित्त न करै । विश्वभर सम जगको भरै ।। पंगु जाके द्वारे पर होई । ताको पोपत अह निशि सोई॥ जो प्रभुके शरणागत आवै । ताको प्रभु क्यों कार विसरावे ॥मात उदरमें रस पहुँ चावत । वहुरि रुधिरते क्षीर बनावत ॥ अशन काज प्रभु वनफल करै। तृपा हेतु जल झरना झरै॥ पात्र स्थान हाथ हार दान । वसन काज वल्कल प्रभु कीने ॥ शय्या पृथ्वी करि विस्तार । गृह गिरि कंदर करे अपार ॥ ताते चिंता सकल तयाग । सूरश्याम पदकरि अनुराग ॥ २० ॥ भक्ति पंथको जो अनुसरै । सो अष्टांग योगको कर ॥ यम नियमासन प्राणायाम ॥कार अभ्यास होइ निष्काम ॥ प्रत्याहार धारना ध्यान । करै जु छोड़ि वासना आन । कर्म क्रम कार करै समा- धि । सुरश्याम भनि मिटै उपाधि ॥२१॥ राग धनाश्री ॥ सवै दिन एकैसे नहिं जात । सुमिरत ध्यान कियो करि हरिको जवलगि तन कुशलात ॥ कवहूं कमला चपला पाइके टेढ़े टेढ़े जात । कवहुँक मग मग धूरि टटोरत भोजन को विलखात ॥ या देहीके गर्व वावरो तदपि फिरत इतरात वाद विवाद सबै दिन बीते खेलत ही अरु खाताहिौं वड हौं वड बहुत कहावत सूधेकहतन वात । योग न युक्ति ध्यान नहिं पूजा वृद्धभये अकुलात ॥वालापन खेलतही खोयो तरुणापन । अलसात । सूरदास औसरके वीते रहिहो पुनि पछतात ॥२२॥ राग सारंग ॥ गई गोविंदाहि भावत नाहिं । कैसी करी हिरण्यकशिपुसों प्रगट होइ छिन माहि ॥ जग जानी करतूत कसकी नरकासुर मारयो पलमाहि । ब्रह्मा इंद्रादिक पछताने गर्व धारि मन माहिं ॥ यौवन रूप राज धन धरती जान जलदकी छाहिं । सूरदास हरि भजो गर्व तजि विमुख अगतिको जाहि ॥२३ राग कान्हरा ॥ विपया जात हरण्यो गात । ऐसे अंध जानित मूरख जे परत्रिय लपटात ॥ वरजिरहे सब कहे न मानत करि करि जतन उड़ात । परे अचानक त्यों रसलंपट तनु तजि यमपुर जात॥ यहतो सुनी व्यासके मुखतें परदारा दुखदात ॥ रुधिर मेद मल मूत्र कठिन कुच उदर गंध गंधात । तन धन यौवन ताहित खोवत नरककी पाछे वात ॥जो नर भले चहत तो सो तजि |