सूरसागर। भूमि परेते सोवन लाग्यो महाकठिन दुखभारे ॥ अपने पिंड पोपिवे कारण कोटि सहस : जिय मारे। इन पापिनते क्योंहुन उवरौगे दामनगीर तिहारे ॥ आप लोभ लालच के कारण कह न पाप तिहारे । सूरदास यम कंठ गहेते निकसत प्राण दुखारे ॥ २०६॥ राग धनाश्री ॥रेमन सूरख जन्म गवायो। कार अभिमान विषयरसगीध्यो श्याम शरण नहिं आयो। यह संसार सुवा सेंवर ज्यों सुंदर देखि लुयो। चाखन लाग्यो रुई उड़ि गई हाथ कळू नहिं आयो। कहा होत अवके पछताये पहिले पाप कमायो । कहत सूर भगवंत भजन विनु शिर ध्वनि ध्वनि । पछतायो॥२०७॥राग मारू ॥औसर हारयोरे तैं हारयो।मानुपजन्म पाइनर वार हरिकोभजन विसा रयो। रुधिर बुंदते साजि कियो तन सुंदर रूप सँवारयो । जठर अग्नि अंतर उरमुख जिन दश मास उवारयो । जयते जन्म लियो जगभीतर तवते प्रभु प्रतिपारयो । अंध अचेत मूढ मतवारे । सो प्रभु क्यों न सँभारयो। पहिरि पितंवर कार आडवर यह तनु ठाठ श्रृंगारयो। काम क्रोध पद लोभ त्रियारति बहु विधि काज विगारयो ।। मरन विसार जीवन स्थिर जान्यो बहु उद्यम जिय धारयो । सुत दाराको मोह अचय विप हरि अमृतफल डारयो। झूठ सांच करि माया जोरी रचि पचि भवन उसारयो। कालअवधि पूरण भई जादिन तिनहूं त्यागि सिधारयो।प्रेत प्रेत तेरो नाम परयो जब जेवरि बांधि निकारयो । जा सुतके हित विमुख गोविन्दते प्रथमहि तिन मुख जारच॥ भाई वंधु कुटुंब सहोदर सब मिलि यहै विचारयो। जैसे कर्म लहो फल तैसे तिनुका तोरि उचा- रयो॥ सतगुरुको उपदेश हृदय धरि जिन भ्रम सकल निवारयो। हरिभज विलम्ब छोडि सूरज प्रभु ऊंचे टरे पुकारयो ॥२०८॥ राग विलावल ॥ या विधि राजा करि विचार । राज साज सवहीको डार । जीरणपट कुपीन तनु धारि । चल्यो सुरसरी तीर उधारि ॥ पुत्र कलत्र देखि सब रोवे ।। राजा तिनके ओर न जोव।राजा चलत चले सब लोग । दुखित भये सब नृपति वियोग ।। नृपति सुरसरीके तट आये। कियो स्नान मृत्तिका लगाये । करि संकल्प अन्न जल त्याग्यो । केवल हरि- पदसों अनुराग्यो ।। अत्रि वसिष्टादिक तहँ आये । नारदादि मुनि बहुरि सिधाये ॥ धन्यभाग्य तुम दर्शन पायो । मम उधार कारण तुम आयो। तुम देखत हरि सुमिरन होई । और प्रसंग चले नाह कोई ॥ आज्ञा होइ करौं अब सोई । जाते मेरि शुद्धगति होई ॥ कोउ कह तीरथ सेवन करो कोउ कह दान यज्ञ विस्तरो॥ काहू कहै मंत्र जप करना । काहू कछु काहू कछु वरना ॥ राजा कह्यो सप्त दिन माहीं। हुति इहिको मोहिं सूझत नाही ।। इहि अंतर शुकदेव तहां आये । राजा देखि तुरत उठि धाये ॥ करि दंडवत कुशासन दीनो। पुनि सन्मान ऋपिन सब कीनो॥ शुक को रूप कह्यो नहिं जाई। शुक हिय रह्यो कृष्णरस छाई। शुककी महिमा शुकही जाने । सूरदास कहि कहा वखाने । २०९ ॥ हरिके जनकी अति ठकुराई । महाराज ऋपिराज राज- हूं देखत रहे लजाईनिर्णय देश राज्य करि ताको लोगन मन उत्साह । काम क्रोध मद लोभ मोह ए भये चोरते साह ॥ दृढ विश्वास कियो सिंहासन तापर बैठे भूप । हरियशविमलछत्र शिर ऊपर राजत प्रेम अनूप ॥ हरिपदपंकज पियो प्रेमरस ताहीके रँगरातो। मंत्री ज्ञानं न औसर पावै कहत वातसकुचातो॥ अर्थ काम दोङ रहैं द्वारे धर्म मोक्ष शिर नावै । बैठि विवेक विचित्रपौरिया समय न कवहूंपावै ॥ अष्ट महासिंधि द्वारे ठाठी करजोरे डरलीने । छरीदार वैराग्य विनोदी हिरकि वाहरे । कीने ॥ माया काल कछू नहिं व्यापै यह रस रीति जु जानी । सूरदास यह सकल समग्री गुरुप्रताप पहिचानी ॥ २०७ ॥ शुक नृप ओर कृपा करि देख्यो । धन्य भाग्य तिन अपनों
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