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(२९) प्रथमस्कन्ध-१ . . देहि । करि हियाव सोसो जलादि यह हरिके पुर लेजाहिँ । घाट वाट कहुँ अटक होइ नहिं सब कोउ देहि निवाहिं । और वनजमें नाही लाहा होत मूलमें हानि । सूरस्वामिको सौदो सांचो कहो हमारो मानि ॥ १८५ ॥ राग केदारा ॥ रे मन रामसों करि हेत । हरिभजन की वारि करिले उबरे तेरो खेतामिन सुआ तनु पिंजरा तिहि माहि राख्यो चेताकाल फिरत बिलानु रतन धरि अव घरी तुम लेत॥ सकल विषय विकार तजि तू तरै सायर सेत । सूर भजि गोपाल गुणको गुरु वताए देत ॥ १८६ ॥ राग कान्हरा ॥ मन वच क्रम मन गोविंद मुधि करि । शुचि रुचि सहज समाधि साजि शठ दीनबंधु करुणामय उर धरि ॥ मिथ्यावाद विवाद छांडिदे काम क्रोध मद लौभै परिहरि । चरणप्रताप आनि उर अंतर हौर सकल सुख यामुख तर हारवेदन को स्मृतिहू भाष्यो पावन पतित नाम निज नरहरि। जाको सुयश सुनत अरु गावत पाप वृन्दजेहैं भजि भर हरि ॥ परमउदार श्याम घन सुंदर सुखदायक संतन हित कर हरि। दीनदयाल गोपाल गोपपति गावत गुण आवत ढिग ढर हरि॥अति भयभीत निरख भवसागर धन ज्यों घरि रहयो घट घर हरि । जव यमजाल पसार परैगो हरिविनु कौन करेगो घर हरि॥अजहूं चेत मूढ चहुँ दिशते कालअग्नि उपजत झुकि झर हरि। सूर काल वलिव्याल ग्रसत है श्रीपति शरन परत क्यों न कर हरि॥१८७॥ तिहारो कृष्ण कहत कहा जात । विछुरे मिलन बहुरि कब हैहै ज्यों तरुवरके पात॥ शीत पित्त कफ कंठ निराधे रसना टूटे वात। प्राण लए जन जाइ मूढमात देखत जितनी नात॥ छिन इक माहिं कोटि युग वीतत नरकी केतक वात । इह जग प्रीति सुवा सेमर ज्यों चाखत ही उड़जात ॥ जवलगि यमको फंद परयो नहिं चरणन चित्त लगात ॥ कहत सूर वृथा यह देही इतो कहा इतरात ॥१८८॥ दिन दश लेहु गोविंद गाइ। छिन न चेतत चरण अंबुज वाद जीवन जाइादूरि जबलों जरा रोगह चलत इंद्री भाइ । आपुनो कल्याण करिलै मानुपीतनु पाइ । रूप यौवन सकल मिथ्या देखि जिन गरवाइ। ऐसेही अभिमान आलस काल ग्रसिहै आइ ॥ कूप खनि कत जाइरे नर जरत भवन बुझाइ । सूर हरिको भजन कीरले जन्म मरण नशाइ ॥ १८९॥ ॥राग धनाश्रीरामन तोसों केतिकही समुझाई । नंदनंदनके चरण कमल भजि तजि पखंड चतुराई।। सुख संपति दारा सुत हय गय हठैसवै समुदाइ।क्षणभंगुर ए सबै श्याम विनु अंत नाहिं सँग जाइ।। 'जन्मत मरत बहुत युगवीते अजहूं लाज न आई। सूरदास भगवंत अजन विनु जैहै जन्म गँवाई। ॥ १९०॥ राग मलार ॥ अव मन मगन हो राम दुहाई । मन वच क्रम हरिनाम हृदय धरि जो गुरु वेद वताई । महाकट दशमास गर्भवसि अधोमुख शीश रहाई। इतनी कठिन सही तू निकस्यो अजहं न तू समुझाई । मिटि गए राग द्वेष सब तिहिके जिन हरि प्रीति लगाई । सूरदास प्रभु नामकी महिमा पतित परमगति पाई ॥ १९१ ॥ राग आसावरी ॥ वौरे मन रहन अटल कर जानाधिन दारा सुत वंधु कुटुंब कुल निरखि निरखि वीराना।जीवन जन्म अल्प सपनोसो समुझि देखि मन माहीं । वादर छोह धूम धौराहर जैसे थिर न रहाही । जव लीग डोलत बोलत चितवत धन दारा हैं तेरेनिकसत हंस प्रेत कहि भजिहैं कोउ न आवै नेरे।।मूरख मुग्ध अज्ञान मूढ़- मति नाही कोऊ तेरो।जो कोऊ तेरो हितकारी सो कहे कटू सवेरो॥घरी एक सज्जन कुटुंब मिलि बैठे रुदन कराही। जैसे काग कागको मूये कांकां कहि उडि जाहीं ॥ कृमि पावक तेरो तन भक्षिहें समुझि देखि मन माहीं। दीनदयालु सूर हरि भजिले यह औसर फिरि नाहीं ॥ १९२ ।। ॥ राग गौरी ॥ तेदिन विसरि गये इहां आये। अति उन्मत्तमोह मद छाक्यो फिरत केश बगराए। | जिन दिवसनिते जननि जठरमे रहत बहुत दुख पाए । अति संकटमें भरत भटालौं मलमें मूड । -