. सूरसागर। (२६) भुजंग सो ग्रीवा नायो। यह अपराध बडो उन कीनो । तक्षक डसन शाप मैं दीनो ॥ ऋपि कह्यो। बहुत बुरो तुम कीनो। जो यह शाप नृपतिको दीनो ॥ तुव शरापते मरि है सोई । यह अपराध मोहिं सब होई ॥ सुख सोवत राज याके सब । दुख पैहैं सो सकल प्रजा अब ॥ ताको रक्षा हरिजू करी। हरि अवज्ञा तुम अनुसरी॥ इहां राजा मनमें पछताई। मैं यह कियो बडा अन्याई ।। जाके हृदय बुद्धि यह आवै । ताको फल सो भलो न पावै ॥ ऋपि शिष्यको भेज्यो समझाई। नृप सों कह तुम ऐसे जाई ।। ममसुत शाप दियो या भाई । सप्तम दिन तोहिं तक्षक खाई । शृंगी- ऋपि यह किय विन जाने । होत कहा अपके पछताने ॥ ताते तुम उपाव सो करो । जाते भव सागरको तरो॥ नृप सुनि लाग्यो करन विचार । सप्तम दिन मरिवो निर्धार ॥ यज्ञ दान करि सुर.. पुर जैये । तहां जाइके सुख बहु लहिये। बहुरि कह्यो सुरपुर कछु नाहिं । पुण्य क्षीण तिहिं ठौर गिराहिी।ताते सुत कलत्र सब त्याग । गहों एक हरिपद अनुराग ॥ बहुरि कहो अब हो कहा त्याग खोयो जन्म विषय सुख लाग॥ सूर न हरि पदसों चित लायो । इत उत देखत जन्म गँवायो॥ ॥१६२॥ वैराग्य उपदेश परीक्षित मन प्रति । राग धनाश्री ॥ इत उत देखत जन्म गयो । इस मायाझुठीके कारण दुहु हग अंध भयो ॥ जन्म कष्टमें पाय दुखित भये अति दुख प्राण सयो: वेत्रिभुवनपति विसार गए तुहि सुमिरत क्यों न रह्यो।श्रीभागवत सुनौ नहिं श्रवणनि वीचहि भटक पयो । सूरदास कहि सब जग पूज्यौ युग युग भक्त जियो । १६३ ॥ राग सारंग ॥ जन्म सिरानो अटके अटके । राज काज सुत पितुकी डोरी विन विवेक फिरयो भटके ॥ कठिन जु ग्रंथि परी मायाकी तोरी जात न झटके । ना हरिभजन ना संत समागम रह्यो पीचही लटके । ज्यों बहु कला काच दिखिरावै लोभ न छूटत नटके। सूरदास शोभा क्यों पावै पिय विहीन धन मटके ॥ ॥ १६४ ॥ जन्म सिरानो ऐसे ऐसे । कै घर घर भ्रमत यदुपति विन के सोवत कै वैसे ॥ कै कहुँ खान पान रसनादिक कै कहुँ वाद अनैसे। कै कहुं रंक कहूं ईश्वरतां नट वाजीगर जैसे॥ चेत्यो नहीं गयो टार अवसर मीन विना जल जैसे । यह गति भई सूरकी ऐसी श्याम मिलैं धौं कैसे ॥ १६५ ॥ राग देवगंधार । विरथा जन्म लियो संसार । करी न कवहूं भक्ति हरिकी । मारि जननी भारि ॥ यज्ञ जप तप नाहिं कीनो अल्पमति विस्तारि प्रगट ब्रह्म दुरचो नहीं तू देखि नैन विसारि ।। बल अविद्या ठग्यो सब जग जन्म जूवा हारि। सूर्य हरिको सुयश गावहु जाहि. मिटि भव भार ॥ १६६ ॥ राग सोरठ ॥ काया हरिके काम न आई । भाव भक्ति जहँ हरियश सुनयो तहां जात अलसाई । लोभातुर काम मनोरथ तहां सुनत उठि धाई । चरण कमल सुंदर जहँ हरिको क्यों हून जात नवाई ॥ जव लगि श्याम अंग नहिं परसत आंखें जोगि.रमाई। सूरदास भगवंत भजन तजि विषय परम विप खाई॥ १६७ ॥राग धनाश्री । सवै दिन गए विपः ॥.. यके हेत। तीनोपन ऐसेही पीते केश भए शिर श्वेत ॥ आंखिनि अंध श्रवण नहिं सुनियत थाके : चरण समेत । गंगाजल तजि पियत कूपजल हरितजि पूजत प्रेत ।। रामनाम विन क्यों छूटोगे चंद ग्रह ज्यों केत । सूरदास कछु खर्च न लागत रामनाम मुख लेत ॥ १६८ ॥ राग सारंग । जो तू रामनाम चित धरतौ । अवको जन्म आगलो तेरो दोऊ जन्म सुधरतौ ॥ यमको त्रास सवै मिटि जातो भक्त नाम तेरो परतौ । तंडुल घृत सँवारि झ्यामको संत परोसो करतो॥ होतो नफाःसाधु की संगति भूल गांठते टरतौ । सूरदास वैकुंठ पेठिमें कोउ न फेंट पकरतौ ॥ १६९ ॥ राग मलार ॥ दोमें एकोतो न भई । ना हरि भजे न गृह सुख पावै वृथा विहाइ गई ।। ठानी हुती और कछु मन Emmanue
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