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प्रथमस्कन्ध- (१९) दारुक आगे है देखहु भक्त भवन किधौं अनत सिधारे । सुनि सुंदरि उठि उत्तर दीनो कौरव सुत कछु काज हँकारे । तहँ आये यदुपति कहियतहै कमल नयन हरिहितू हमारे ॥ तिहिको मिलन गयो मेरो पति ते ठाकुर, प्रभू हमारे । सूर प्रभू सुनि संभ्रम धाए प्रेम मगन तन वसन विसारे।।१२१॥ प्रभुजू तुमहो अंतर्यामी । तुम लायक भोजन नहिं गृह में अरु नाहीं गृह स्वामी। हरि कहयो साग पत्र जो मोहिं प्रिय अमृत या सम नाहीं। वारंवार सराहि मूर प्रभु शाक विदुर घर खाहीं ॥ १२२ ॥ भगवान दुर्योधन संवाद । राग सोरठ ॥ क्यों दासीसुतके पांव धारे। भीपम कर्ण द्रोण मंदिर तजि मम गृह तजे मुरारे ॥ सुनियत दीन हीन वृपली सुत जाति पांतिते न्यारे ॥ तिनके जाइ कियो तुम भोजन यदुवंशी सब लाजनि मारे ॥ हरिज़ कहें सुनो दुर्योधन सोइ कृपण मम चरण विसारे । वेई भक्त भागवत वेई राग द्वेप ते न्यारे।।सूरदास प्रभु नंदनँदन कहैं हम ग्वालन जुठिहारे ।। १२३ ॥ राग सारंग ॥ हमते विदुर कहाहै नीको। जाके रुचिसों भोजन कीनो सुनियत सुत दासीको ॥ द्वै विधि भोजन कीजै राजा विपति परे के प्रीती । तेरी प्रीति न मोहिं आपदा यह बड़ी विपरीती ।। ऊंचे मंदिर कोन काजके कनक कलश जु चढ़ाये । भक्त भवन में में जु वसतही यद्यपि तृण करि छाये । अंतर्यामी नाम हमारो हौं अंतरकी जानो। तदपि सूर भक्तवत्सलहों भक्तन हाथ विकानो ॥ १२४ ॥ हरि तुम क्यों न हमारे आए । पटरस व्यंजन छोड़ि रसोई साग विदुर घर खाये ॥ ताकी हुगिया में तुम बैठे कौन बड़ापन पायो । जाति पांति कुलहूते न्यारो है दासीको जायो । मैं तुहि कहीं अरे दुर्योधन सुन त वात हमारी । विदुर हमारो प्राण पियारो तू विपया अधिकारी ॥ जाति पांतिहौं सवकी जानों वाहिर छाक मँगायो । ग्वालनिके सँग भोजन कीनो कुलके लाज लगायो । जाँ अभिमान तहां में नाहीं यह भोजन विप लागे । सत्य पुरुप बैठे घटहीमें अभिमानीको त्यागे। जहँ जहँ भीर परे भक्तनको तहां तहां उठि धाऊं । भक्तनके हों संग फिरत हों भक्तन हाथ विकाऊं । भक्तवछल हे विरद हमारो वेद स्मृती हूं गाये । सूरदास प्रभु यह निज महिमा भक्त- न काज बढ़ाये ॥ १२५ ॥ द्रौपदी सहाय ॥ राग पिलावळे ॥ हरि हरि हरि सुमिरौ सब कोई । नारि पुरुप हरि गनत न दोई ॥ द्रुपदसुताकी राखी लाज । कौरवपतिको पारयो ताज ॥ कहीं सु कथा सुनो चित लाई । सूरश्याम भक्तन पनिआई ॥ १२६॥ कोरव पांसा कपट बनाये ॥ धर्मपुत्रको युवा खिलाये॥तिन हारयो सब भूमि भंडारी ।हारी बहुरि द्रौपदी नारी ॥ताको पकरि सभामें लाये । दुःशासन करि वसन छुड़ाये ॥ तव वह हरिसों रोइ पुकारी । सूर राखि मम लाज मुरारी ॥ १२७ ॥ राग सारंग ॥ अव कछु नाही नाथ रह्यो । सकल सभामें वैठि दुशासन अम्बर आनि गह्यो । हारयो सव भंडार भूमि अरु अव वनवास लयो । एकै चीर हुतौ मेरे पर सो इन हरन चरो ॥ हा जगदीश राखि यहि अवसर प्रगट पुकारि कह्यो । सूरदास उमँगे दोउ नयना वसन प्रवाह वन्यो ।। १२८॥ राग बिलावल ॥ जेती लाज गोपालहि मेरी॥तितनी नाहि वधू हौं जाकी अंबर हरत सबन तन हेरी ॥ पति अति रोप मारि मन महियां भीपम दई वेद विधि टेरी । हा जगदीश द्वारका स्वामी भई अनाथ कहत हों टेरी ॥ वसन प्रवाह बढ्यो जब जान्यो साधु साधु सबहुन मति फेरी। सूरदास स्वामी यश प्रगट्यो जानी जनम जनमकी चेरी ॥ १२९ ॥ राग धनाश्री ॥ निवहो बाँह गहेकी लाज । द्रुपदसुता भापत नंदनन्दन कठिन भई है आज ॥ भीपम कर्ण द्रोण दुर्योधन बेठे सभा विराज । तिहिं देखत मेरो पट काढत लीक लगी तुम