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श्रीसूरदासजीका जीवनचरित्र।


पृथ्वी(२)राज दीनों तिन्है ज्वाला देश।तनय ताके चार कीन्हों प्रथम आप नरेश ॥ दूसरे(३) गुणचंद तासुत शीलचंद सरूप।(४) वीरचंद प्रताप पूरण भयो अदभुत रूप॥ रंतभार


प्रसिद्ध वीरभूमिकं तत्त्वों से उत्पन्न हुआ था और राजपूतानेके हृदयरूपी अजमेर नगरमें बड़ा हुआ था । वह पट भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद शास्त्र, ज्योतिष, वैद्यक, मंत्रशास्त्र, पुराण, नाटक और गान आदिक विद्याओं में अच्छा व्युत्पन्न पंडित था। उसके पिताका नाम वेण और विद्या-गुरु का नाम गुरुप्रसाद था। उसकी दो स्त्रियोंके नाम कमला अर्थात् मेवा और गौरी अर्थात् राजोरा और एक लड़की का नाम राजवाई और दश लड़कोंके नाम सूर १ सुन्दर २ सुजान ३ जल्ह ४ वल्ह ५ बलिभद्र ६ केहरि ७ वीरचंद ८ अवधूत अर्थात् योगराज ९ और गुणराज १० थे। इस महाकाव्यके विषयोंको वैसे तो उसने समय २ पर बनाकर कंठ कर रक्खे थे परंतु उनको ग्रंथाकारमें उसने ६०॥ दिनमें रचा था और अंतको उसने रायसा की पुस्तक अपने लड़के जल्ह नामकको दी थी । इस रायसे के अतिरिक्त उसके रचे और भी कईएक ग्रंथ सुनने में आतेहैं परंतु उनमें सबसे बड़ा ग्रंथ यह रायसा है और अन्य सब ग्रंथ अब बिल्कुल नहीं मिलते हैं। उसका सविस्तर जीवनचरित्र और वंशावली जहाँ तक हमारे जानने में ख्यातादि से आई है वह हम इस ग्रंथके समाप्त होने पर छापकर प्रसिद्ध करेंगे।'

फिर लिखा है-

छप्पय-'सम वनिता वर बंदि चंद जंपिय कोमल कल । शब्द ब्रह्म यह सत्य अपर पावन कहि निर्मल।। निहित शब्द नहिं रूप रेख' आकार बन्न नहिं ॥ अकल अगाध अपार पार पावन त्रयपुर महिं ॥ तिहिं.शब्द ब्रह्म रचना करौं गुरुमसाद सरसे प्रसन ॥ यद्यपि सु उकित चूकौं जुगति तौ कमल वदनि कवितह हसन ।।

छंद ॥ १३ ॥ रू०॥८॥

८ चंद इस रूपक में अपनी स्त्रीको उसकी शंकाका उत्तर देकर समाधान करता है ।शब्द ब्रह्म (सं० शब्दात्मकं ब्रह्म) शब्द का प्रयोग चंद की व्याकरण और वेदान्त विद्याके ज्ञान का द्योतक है। गुरुमसाद शब्द यहां श्लेपार्थमें कवि ने प्रयोग किया है क्योंकि ख्यातियों के अनुसार चंद के विद्या गुरु का नाम गुरुप्रसाद था। यद्यपि कुछ विशेष वृत्त नहीं मिलते तथापि यह गुरुप्रसाद नामक पंजाब देशका रहनेवाला एक वडा पंडित हुआहै । कवितह चंदकी हिन्दी का निज प्रयोग है और उसका अर्थ कवित्त अर्थात् काव्य रचनेवाले कवि का है । किसी २ पुस्तक में जो बरबंदि, अमल, अबळ,त्रयपूर, महि, तिहि और प्रसन्न पाठहैं वे अशुद्ध हैं।'

फिर लिखा है

“बिहु बाह सूर सज्ने समंत । बेनै विरद्द बंधे अनंत" ॥ छंद ॥ ६२३॥ यह छंद सं० १६४७ । १७७० और १८४५ की पुस्तकों में नहीं है किन्तु सं० १८५९ की लिखी में है। इस छंदकी अंतकी तुक में "वनै विरद्द वंधे अनंत" है कि जिसका अर्थ यह होता है कि वेन ने अनेक विरद्द वांधे अर्थात् कहे । यह वेन कवि इस महाकाव्यके रचनेवाले चंद का पिता था और वह सोमेश्वर जीके इस समय साथ था। अब तक चंदसे पहिले का कोई काव्य किसी भी कवि का किसीके जानने में नहीं है किन्तु हमने जो. एक चंद छंद वर्णन की महिमा नामक पुस्तक सं० १६२९ की लिखी शोध की है उसके पीछे मेवाडराजके महाराणा जी श्री उदयसिंह जी के महाराजकुमार श्री सगतसिंह जीके पंडित विष्णुदास जीने अकबर बादशाहके भाट गंग जीसे अजमेर में पटोलावायके मुक़ामपर चंदके बाप कवि राव वेनका नीचे लिखा छप्पय अर्थात् कवित्त लिखा था वह हम प्रकाश करतेहैं । इस छप्पयसे वेन ने पृथ्वीराज जीके पिता सोमेश्वर जीको आशीश दी थी-

छप्पय-अटल ठाट महि पाट, अटल तारागढ थानं । अटल नग्र अजमेर, अटल हिंदव स्थानं ॥ अटल तेज परताप, अटल लंका गढ़ डंडिव । अटल आप चहुवान, अटल भूमी यश मंडिव ॥ संभरी भूप सोमेश नृप, अटल छत्र ओपै सू सर ॥ कविराव वेन आशीश दैं, अटल युगां राजैश कर ॥ इसीके साथ उसी पुस्तक में चंदके नागापत्रकरणा का कहा हुआ यह नीचे लिखा दोहां भी लिखाहै:-

दोहा-ले कूंजा नृप पीथुला, सांमत चमू समंद ॥ वेन नॅंदन कनवन गमन, चंद करन कंइ दंद।।'

पृथ्वीराज रायसे की प्रथम संरक्षा में लिखाहै-

इसके सिवाय फारसी और जम्मूकी तवारीख भी इस वातकी साक्षी देती है कि चंद हमारे हिन्दुओंके अंतिम बादशाह का परममिय कविराज और सहचर था। यदि हम उन पुस्तकों का मूल उद्धृत करके यहां प्रमाण में प्रवेश करैं तो ग्रंथके बहुत बढ जानेका भय है। अतएव हम मेजर रैवर्टी साहब की एक टिप्पणी को उद्धत कर प्रमाणमें इस अभिप्राय से देते हैं कि हमारे पाठकोंको इस विषय का अनुभव एक थोडीसी पंक्तियों से ही होजायं। नीचे लिखी थोड़ी सी पंक्तियें केवल