(१४) सूरसागर। पर काल नीच नहि चितवत आयु घटत ज्यों अँजुरी पानी ॥ विमुखनि सों रति जोरत दिन प्रति . साधुन सों न कहं पहिचानी॥तिहि विनु रहत नहीं निशि वासरजिहि सब दिन रस विपय बखानी॥ माया मोह लोभ नहिं जामें ऐसो वृन्दावन रजधानी । नवल किशोर जलद तनु सुन्दर विसरयो। सूर सकल सुखदानी ॥ ८३ ॥ माधव जू मोहिं काहेकी लाज । जन्म जन्म योंही भरमान्यो अभिमानी वे काज ॥ जल थल जीव जिते जग जीवन निरख दुखित भये देव । गुण अवगुण की समुझि न शंका परी आइ यह टेव ॥ सर्वस खाइ रह्यो घर बैव्यो करयो न कळू विचारी । सूर श्वानके पालनहारे आवत है नित गारी ॥ ८४ ॥ राग सारंग ॥ माधव जू सो अपरा- || धी हौं । जन्म पाइ कछु भलो न कीनो कहो सु क्यों निवहौं ॥ सवसों रीति कहत यमपुर की गज पिपीलिका लों। पाप पुण्यको फल दुख सुख है भोग करौ जुइगों ॥ मोको पंथ बताओ सोई नरक कि स्वर्ग लहों। काके वल हौं तरौं गुसाई कछु न भक्ति मो मो ॥ हँसि बोले जगदीश । जगत्पति वात तुम्हारी यों । करुणासिंधु कृपालु कृपानिधि भजो शरण को क्यों। बात सुने ते बहुत हँसोगे चरण कमल की सों। मेरी देह छुटत यम पठये जितक दूत घर मों। लेले सब हथियार आपुने सान धरायेत्यों । जिनके दारुण दरश देखिके पतित करत म्योंम्यों॥दांत चवात चले मधुपुर ते धाम हमारे को । ढूंढि फिरे घरकोउ न बतावै श्वपच कोरिया लों॥ रिस भरि.. गए परम किंकर तव पकरयो घुटि न सको। लैलै फिरे नगरमें घर घर जहां मृतक हौं हौं ॥ ता' रिसते हौं बहुतक मारयो कहँ लौं वरणि कहौं । हाय हाय मैं परयो पुकारयोराम नाम न वकौं ॥ ताल पखावज चले वजावत समधी सो भोकों । सूरदासकी भली वनीहै. गजी गई अरु पों॥ ८५ ॥ राग कान्हरा ॥ थोरो जीवन बहुत न भारो। कियो न साधु समागम कवहूं लियो न नाम तुमारो॥ अति उन्मत्त मोह माया वश नहिं कफ वात विचारो । करत उपाव न पूंछत काहू गनत न खाये खारो॥ इन्द्री स्वाद विवस निशि वासर आप अपुनपो हारयो। जल उनमेद मीन ज्यों बपरो पांउ कुहारो मारयो॥ वांधी मोट पसारि त्रिविध गुण कहू न.वीच उतारयो। देख्यो. सर विचारि शीश परि तव तुम शरण पुकारयो । ८६॥ राग धनाश्री ।। अब मैं नाच्यों बहुत गुपाल काम क्रोध को पहिरि चोलना कंठ विषयकी माल ॥ महामोहको नेपुर वाजत निंदा शब्द रसाल। भरम भये मन भयो पखावज चलत कुसंगत चाल ॥ तृष्णा नाद करत घट भीतर नाना विधि देताल । मायाको कटि फेंटा बांध्यो लोभ तिलक दियो भाल || कोटिक कला कांछि देखराई ... जल थल सुधि नहिं काल । सूरदास की सबै अविद्या दूरि करो नंदलाल ॥ ८७ ॥ ऐसी करत अनेक जन्म गये मन संतोष न आयो । दिन दिन अधिक दुराशा लाग्यो सकल लोक भरमायो । मुनि सुनि स्वर्ग रसातल भूतल तहीं तही उठि धायो । काम-क्रोध मद लोभ अग्नि ते काहु न जरत बुझायो ॥ सक चंदन वनिता विनोद सुख यह जर जरन वितायो । मैं अज्ञान अकुलाइ अधिक लै जरत मांझ घृत नायो । भ्रमि भ्रमि हौं हारयो हिय अपने देखि अनल जग छायो । सूरदास प्रभु तुम्हरि कृपा विनु कैसे जातं नशायो ॥ ८८ ॥ वादिहि जनम गयो सिराइ । हरि सुमिरन नहिं गुरुकी सेवा मधुवन वस्यो न जाइ ॥ अवकी वेर मनुष्य देह धरि भजो न आन उपाइ । भटकत फिरयो श्वान की नाई नेक जूठ के चाइ ॥ कबहुँ न रिझये लाल गिरिधरन विमल विमल यश गाइ ॥ प्रेम सहित पग बांधि धुंधुरु सक्यो न अंग नचाइ ॥ श्री भाग- वत सुन्यो नहिं श्रवणनि नेकहुँ रुचि उपजाइ । अनन्य भक्ति नरहरि भक्तनिके कवह धोए
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