प्रथमस्कन्ध-१ साथ बहुत भांतिन की कीने पाप अपार ॥ निंदा जग उपहास करत मग वंदी जन यश गावत । हठ अन्याय अधर्म सूर नित नौवत द्वार वजावत ।।७६॥ राग धनाश्री ॥सांचो सो लिख धार कहावै। काया ग्राम मसाहत करिकै जमा वांधि ठहरावै ॥मन्मथ करै कैद अपनीमें जान जहतिया लावै । मांडि मांडि खरिहान क्रोध को फोता भजन भरावै ॥ बट्टा काट कसूर भर्म को फरै तलै लै डार । निश्चय एक असल पै राखै टरे न कवहूं टारै ॥ करि अवारजा प्रेम प्रीतिको असल तहां खतियावै । दूजी करै दूरि करि दाई तनक न तामें आवै । मुजमिल जोरै ध्यान कूल का हँसो तहँ लै राखै । निर्भय रूपै लोभ छांडि कै सोई वारिज राखे ॥ जमा खर्च एकै करि समझै लेखा समुझि वतावै । सूर आप गुजरान मुहासिब लै जवाव पहुँचावै ।। ७७॥ प्रभु जू मैं ऐसो अमल कमायो । साविक जमा हुती जो जोरी मिनजालिक तल लायो ॥ वासिलवाकी स्याहा मुजमिल सब अधर्म की वाकी। चित्रगुप्त होत मुस्तौफी शरण गहूं मैं काकी ॥ पांच मुहारै साथ करि दीने तिनकी बडी विपरीत । जिम्मे उनके मांगै मोते यह तो बड़ी अनीत ॥ पांच पचीस साथ अगवानी सब मिलि काज विगारे । नेकु जु सूतै विसरि गई सुधि मो तजि भए निनारे ।। बड़ो तुम्हार वरामद हू को लिखि कीनो है साफ । सूरदास को यह मुहासवा दस्तक कीजै माफ॥ ७८॥ राग सारंग ॥ प्रभु हो सब पतितनको राजा। निंदा परमुख पूरि रह्यो जग यह निसान तव बाजा ।। तृष्णा देशरु सुभट मनोरथ इन्द्रिय खड्ग हमारे । मंत्री काम कुमति देवे को क्रोध रहत प्रतिहारे ॥ गज अहंकार बढ्यो दिग विजयी लोभ छत्र करि शीश । फौज असत संगति की मेरी ऐसो हौं मैं ईश ॥ मोह मई वंदी गुण गावत मागध दोपअपार । सूर पापको गढ़ दृढ़ कीनो मुहकमलाइ किंवार॥७९॥राग धनाश्रीहरि हौं सव पतितन को रावाकोकरि सकैवरावरि मेरी सोधौं मोहिं वताव ॥ व्याध गीध अरु पतित पूतना तिन में बढ़ि जो और । तिन में अजा- मेल गणिकापति उन में मैं शिरमौर ।। जहँ तहँ सुनियत यह बड़ाई मो समान नहिं आन अब रहे आजु कालिके राजा मैं तिनमें सुलतान ।। अवलौं तो तुम विरद बुलायो भई न मोसों भेट। तजौ विरद के मोहिं उधारो सूर गही कसि फेट ।। ८० ॥ राग सारंग ॥ हरि हौं सब पतितन को नायक । को करि सकै बरावरि मेरी और नहीं कोउ लायक ॥ जैसो अजामेलको दीनो सो पाटी लिखि पाऊं। तो विश्वास होइ मन मेरे औरो पतित बुलाऊं। यह मारग चौगुनो चलाऊं तो पूरो व्यापारी । वचन मानि लै चलौं गाठि दे पाऊं सुख अति भारी ॥ यह सुनि जहां तहां ते सिमिटे आइ होइ इक ठोर । अब के तो अपनी लै आयों बेर बहुर की और ॥ होड़ा होड़ी मनाहि भावते किये पाप भरि पेट । सबै पतित पाँइन तर डारौ इहै हमारी भेट ॥ बहुत भरोसो जानि तुम्हारो अप कीनो भरि भाडो । लीजै वेगि निवरि तुरंतहि सूर पतित को टाडो॥ ८ ॥ राग धनाश्री ॥ मोसों पतित न और गुसाई । अवगुण मोते अजहुँ न छूटत भली तजी अव ताई।जन्म जन्म मोही भ्रमि आयो कपि गुंजा की नाई ॥ परशत शीत जात नहिं क्योंहू लेले निकट बनाई ॥ मोह्यो ज़ाइ कनक कामिनि सों ममता मोह बढ़ाई। जिह्वा स्वाद मीन ज्यों उरझ्यो सूझत नहि फंदाई॥ सोवत मुदित भयो स्वप्ने में पाई निधि जु पराई । जागि परचो कछु हाथ न आयो यह जग की प्रभुताई ॥ परशे नाहिं चरण गिरिधरके बहुत करी अन्याई । सूर पतितको ठौर और नहि राखि लेहु शरणाई ॥८२॥ हरि हौं महा पतित अभिमानी । नर पापिन सों वैठि विपम रत भाव भगति नहिं जानी ॥ निशि दिन दुखित मनोरथ करि करि पावत हूं तृष्णा न बुझानी । शिर
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