- (८). सूरसागर। - नरक कूपनि जाइ यमपुर परयो वार अनेक । महा माचल मारिवेको संकुच नाहिन. मोहिं ।।। परयो हौं प्रण किये द्वारे लाज प्रण की तोहि ॥ नाहिनै काचो कृपानिधि करौ कहा रिसाइ । सूर। तबहुँ न द्वार छाँडै डारिहौ कढराइ ॥४१॥ राग धनाश्री ॥ जनके उपजत दुख किन काटत । जै- से. प्रथम अषाढ़ के वृक्षनि खेतहर निरखि उपारत ॥ जैसे मीन किलकिला दरशत ऐसे रहो प्रभु डाटत । पुनि पाछे अघ सिंधु बढ़त है सूर खार किन पाटत ॥ ४२॥ राग कान्ह। ॥ कीजै प्रभु : अपने विरद की लाज । महापंतित कवहूं नहिं आयो नेकु तुम्हारे काज ॥ माया सबल धाम धनः वनिता बांध्यो हौं इहि साज । देखत सुनत सबै जानत हौं तऊ न आयो वाज | कहियत पतित बहुत तुम तारे श्रवणनि सुनी अवाज ! दई न जात खार उतराई चाहत चढ़न जहाज ॥ लीजै पार उतारि सुर को महाराज ब्रजराज । नई न करन कहत प्रभु तुम सों सदा गरीबनेवाज़ ।।.४३ ॥ राग विलावल ॥ महाप्रभु तुम्हें विरद की लाज । कृपानिधान दान दामोदर सदा सँवारत काज जब गज ग्राह चरण धरि राख्यो तब तुम्हें नाथ पुकायो। तजिकै गरुड चल्यो अति आतुर पकरि चक्र कर मारयो । निशि निशिही ऋपि लए सहसदश दुर्वासा पग धारयो । तत्कालहिं तब प्रगट भये हरि राजा जीव उबारयो । हरनाकुस प्रहाद भक्त को बहुत शाशना जारयो। रहि न सके नरसिंह रूप धरि गहि कर असुर पछारयो । दुःशासन गहि केश द्रौपदी नगन करन को लाए। सुमिरत ही तत्काल कृपानिधि वसन प्रवाह बढ़ाये ॥मागधपति बहु जीति महीपति कछु जिय में गए । जीत्यो जरासंध रिपु मारयो वल करि भूप छुड़ाए ॥ महिमा अति. अगाध करुणामय भक्त हेतु हितकारी। सूरदास पर करौ कृपा अव दरशन देहु मुरारी ॥ ४४ . रागधनाश्री ॥ शरण आये की लाज उर धरिये । सध्यो नहिं धर्म शील शुचि तप व्रत कछू कहा . मुख लै तुम्हें विनय करिये ॥ कछू चाहौँ कहौं सोचि मनमें रहौं कर्म अपने जानि त्रास आवै। यहै। निज सार आधार मेरे अहै पतितपावन विरद वेद गावै ॥ जन्म ते एकटक लागि आशा रही विषय विष खात नहिं तृप्ति मानी। जो छिया छरद करि सकल संतनि तजी तासु मति मूढ रस | प्रीति ठानी॥ पाप मारग जिते तेव कीने तिते बच्यो नहिं कोइ जहँ सुरति मेरी । सूर अवगुण || भरयो आइ द्वारे परयो तकी गोपाल अब शरण तेरी ॥ ४५ ॥ प्रभु मेरे गुण अवगुण.. न विचारो। कीजै लाज शरण आये की रवि सुत त्रास निवारो॥योग यज्ञ जप तप नहिं कीयो वेद विमल नहिं भाष्यो । अति रस लुब्ध इवान जूठान ज्यों कहूं नहीं चित राख्यो । जिहि जिहि । योनि फिरयो संकट वश तिहि तिहि यह कमायो । काम क्रोध मद लोभ ग्रसित भये विषम परम विष खायो ॥ जो गिरिपति मास घोरि उदधि में लै सुरतरु निज हाथ । ममकृत दोष लिखें. ॥ :: बसुधा भर तक नहीं मित नाथ ॥ कामी कुटिल कुचील कुदरशन अपराधी मतिहीन। तुम समान : और नहिं दूजो जाहि भनौं है दीन ॥ अखिल अनंत दयालु दयानिधि अविनाशी सुखरास। भजन नाप नाहि मैं जान्यों परयो मोह की फांस ॥ तुम सर्वज्ञ सबै विधि समरथ अशरण शरण मुरारि। बी समुद्र सूर बूड़त है लीजै भुजा पसारि॥ ४६॥ राग सारंग ॥ तुम हरि सांकरेके साथी । राग साकार परम आतुर है दौरि.छुड़ायो हाथी॥ गर्भ परीक्षित रक्षा कीनी वेद उपनिपद साखी.! वारवार य द्रुपदतनया के सभा माँझ पत राखी ॥ राज खनि गाई व्याकुल है दै दै.सुत को पिन खाये॥धु हति राजा सब छोरे ऐसे प्रभु.परपीरक ॥ कपट स्वरूप धरयो जब कोकिल नृप । परी आनि यहटी। कठिन परी तवहीं तुम प्रगटे रिपु हति सब सुखदानी ॥ ऐसे कहाँ कहाँ लो ।
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१०१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।