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सुखशवरी। - .. MAP ..... ..... - .. दीघनिश्वास निकलने लगा। थोड़ी देर में किसी प्रकार अपना मन शान्त करके वह उठी, और धीरे धीरे जङ्गल के भीतर घुसी। यह वही जङ्गल है, जिसमें कापालिक का भग्नगृह था। कांपते कांपते अनाथिनी चली जाती थी, और मम में नाना प्रकार के भावों की तरङ्गों का परस्पर आघात प्रतिघात होरहा था। अनाथिनी इतनी अन्यमनस्का थी कि यदि सैकड़ों तांपें एक साथ छूटती तोभी उसके कानों पर जं तक न रेंगती, किन्तु प्राकृतिक घटना ऐसी आश्चर्यमयी है कि जिसके कारण एक भीषण शब्द ने उसका मन अपनी ओर आकर्षित किया। मानो वह शब्द तीर को तरह उसके रोम रोम में चुभ गया, और वह इतिकर्तव्यविमूढ़ हो कर कांपने लगी। - उसने सुना कि, 'बाममार्गी कापालिक की कलुषितभावों से भरी मंत्रध्वनि बज्र-निनाद की तरह वन में गंज रही है !' उसने समझा कि, बस अब दीपनिर्वाण हुआ चाहता है ! जो कुछ करना हो, उसमें शीघ्रता करनी चाहिए, अन्य इस तुच्छ प्राण का मोह क्यों करूं? जब कि स्वयं प्राण देनं को खड़ी हूं, तब फिर भय काहे का!' इत्यादि कहती कहती जिस ओर से मत्रध्वनि आती थी उसी ओर वह चली। भागीरथी के किनारे पहुंचकर अनाथिनी ने देखा कि, 'पूर्वपरिचित राक्षसाकृति कापालिक प्रज्वलित अग्निकुण्ड में जार जोर से मत्र पढ़ते पढ़ते मांस आदि का होम करता है, सामने एक कात्यायिनो देवी की मूर्ति सिंहासन पर स्थापित है, देवी के पैरों के पास हस्तपादवद्ध भूपेन्द्र औंधा पड़ा है और अगल में हाथ में नंगी तलवार लिये रामशङ्कर खडा है, तथा पास ही एक पेड़ के. नीचे मनसाराम का भाई, जिसमें कि मजिष्ट्रट का छुरी मारी थी, बैठा है।' यह सब कौतुक देख कर अनाथिनी क्षणभर के लिये अचलप्रतिमा सी होगई ! पाठकों को अब विदित हुआ होगा कि मजिष्टे ट पर आक्रमण करने के अनन्तर रामशंकर, मनसाराम के भाई के संग जंगल. पहाड़ों में छिपा फिरता था, क्योंकि उन दोनों पर वारण्ट जारी था। गत परिच्छेद में जिन अश्वारोहियों ने प्रेमदास से रामशंकर का