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उपन्यास। ०९ - - - - ब्याह के लिये कितने रुपए तुम ले गए थे?" प्रेमदास,-"असंख्य !!! ब्याह का नाम सुनते ही घर-द्वार, खेती-बारी, सब बेंचबांच कर जो कुछ. आया, सो श्रीचरण में चढ़ाने के लिये ले गया था, पर तौभी बुरी तरह निकाला गया।' सुबदना,-"अच्छा , वे रुपए अब कहां हैं !" प्रेमदास,-'उन्हें मैने एक पुराने पीपल के पेड़ के नीचे गाड रक्खा है, इसलिये कि उन्हें देखकर ब्याह की याद गाजाती थी।" सुअदना,-"अच्छा प्रेमदास ! सब बात पक्की हुई. । अब तुम सूतो, मैं जाऊं।" प्रेमदास,-"जाओगी ? अच्छा, अपने अंचल में एक गांठ लगालो, जिसमें मेरी बात की याद बनी रहै!" __सुबदना,-"यह देखो, मैने गांठ लगा ली! कल सबेरे फिर, हमलोगों की बातचीत होगी और दिन ठीक किया जायगा। मैं जाऊं न ? दण्डवत् , दण्डवत् ! सूतो, सूतो ! बहुत खत बीत गई है।" सुबदना के मिष्टालाप से प्रेमदास अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और हर तरह की शुभ चिन्ता का मन में आंदोलन करते करते निद्रत हुए। सुषदना भी सरला के समीप जाकर सोगई। सबको निद्रित जान कर चिन्ताकुल अनाथिनी निज कर्तव्य-कर्म सिद्ध करने के लिये उठी और धीरे धीरे कापालिक के भग्नगृह की ओर चली। weer