उपन्यास। सो, प्रेमदास की मनस्तुष्टि के लिये वह जी खाल कर हास-परि- हास करने लगी। सरला को टल जाते देख कर प्रमदास ने सच ही विश्वास किया कि, 'सरला सुबदना को मेरे मन की परीक्षा लेने के लिये अकेले में छोड़ गई है! अरे उसने कुछ कुछ सुखदना के कानों में भी तो कहा रहा !' इत्यादि सोच कर प्रमदास ने, जो जन्म से सुबदना को प्राण से भी अधिक साहा था; इसका प्रबलतम प्रमाण वे देने लगे। प्रेमदास,-"सुबदना! आहा क्या ही नाम की सुन्दर परिपाटी है! यथार्थ ही सुबदना ! सुबदना!! सुबदना!!! सुबदना और प्रेमदास, इन दोनों नामों में चार ही अक्षर तो हैं !" .. सुबदना,-"प्रेमदास ! तुम बड़े रसिक पुरुष हो! तुम क्या मुझे अपनाओगे, ऐसा क्या मेरा भाग है !!! ".....
- प्रमंदास,-"मैं रसिक हूं? ठीक ! विवाह नहीं हुआ, पर उसके
लिये जन्म से रसिकता सीख रक्खी है; किन्तु मुझे किसीने नहीं अपनाया, सबने दूर किया; इससे रसिकता कुछ भूल गया होऊंगा । सरला सहसा मुझे ब्याह का भरोसा देकर ले आई है, इसीसे मुझे रसिकता सीखने का सयम नहीं मिला; अतएव मन में जो 'अनाप शनाप' आता है, वही बकता हूं।" . सुबदना,-"क्या कहा ! ब्याह नहीं किया, निकाल बाहर किया ! क्या सर्वनाश ! किस अभागिनी ने ऐसा किया! कौन अभागिन प्रमदास से विवाह करने से पीछे हटी ! ओः ! समझो ! यदि दूसरी तुम्हें जकड़बैठती तो फिर मेरा माग कैसे खुलता!इसी लिये किसीने तुमसे ब्याह नहीं किया!" प्रेमदास,-"तुम मेरी होगी, ऐसा क्या मेरा भाग है? वह दिन कब आवैगा?" सुबदना,-"स्थिर होकर सुनो! पहिले तुम्हारा मन खोल लू पीछे और बात होगी। प्रेमदास! तुम क्या मुझे जी से चाहते हो ?" प्रेमदास,-"सुचदना ! जिस दिन पहिले-पहिल मैने तुम्हें देखा था, उसी दिन से तुम्हें मैं दिल से चाहता हूं। मैं जनेऊ ( यज्ञोपवीत ) की शपथ खाकर कहता हूं कि तुम्हें मैं प्राण से भी अधिक प्यारी समझता हूं।" सुचदना,-"तुम ब्राह्मण हौ! हाय, तुम अभी तक यह नहीं RE