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. सुखशवरी। - - सुगदना स्त्री है; यदि सुगदना स्वयं मेरे पास आवै तो भलापहिले कौन बोलेगा ? मैं बोलंगा! क्यों ? मैं तो नायक हूं न ? इसी समय रसिकशिरोमणि सुबदना सरला के संग चिन्तामग्न प्रेमदास के पास आई। श्री प्रेमदास ने सरलो को भी संग देखकर उससे आग्रह से कहा,"क्यों सरला! इतना कष्ट उठा कर और सब छोड़ छाड़ कर यहां तक आया, पर तुमने जो कहा था---" सरला,-"प्रमदास ! देख लो! तुम्हें यह बहू पसंद है न ? यही तुम्हारी महिषी होगी।" प्रमदास,-'यही होगी? ऐसा मेरा पाटी सा भाग है! ऐं! तुम इन्हें मेरे पास शायद इसी लिये ले आई हो?" सरला,-"हां जी! इसमें संदेह क्या है ?" प्रेमदास,-"सो कुछ नहीं, इन्हें तो मैं जन्म से कपा-मां के पेट ही में से चाहता हूं! अच्छा, यह महिषी हैं, और मैं नायक हूं, सुतरां महिष हूं !" यह सुनकर सुबदना ने हँसकर सानुराग कहा.-"तुम्हारा नाम क्या है ? प्रेमदास ! बाह, खूब ही नाम है ! जो तुम्हें चाहै, तुम उसीके दास !!!" - प्रेमदास ने दीर्घनिश्वास त्याग कर के कहा,-"सचमुच, जो 'मुझे चाहै, मैं उसीका क्रीतदास, चिरदास, अनन्यदास, असंख्यदास और दासानुदास हूं !!!" - सुबदना,-"प्रमदास तुमने दीर्घनिश्वास क्यों लिया ?" - प्रेमदास,-"यही कि मेरे ऐसे अभागे को आज तक किसीने ‘नहीं चाहा, इसीलिये दीर्घनिश्वास त्यागा। हां तुम्हारा नाम !" सुबदना,-"मेरा नाम क्या भूल गए ? सुबदना!!!" प्रेमदास,-"अहा! यह नाम तो मेरे हृदय में चिरकाल से "लिखा है। इस समय मारे प्रेम के भूल गया था, क्षमा करना।" १३. प्रमदास का सुबदना पर प्रम है, इसका हाल सरला कुछ भी पहिले से नहीं जानती थी, और वह प्रेमदास को निरा भोंपू समझती थी, इसलिये ब्राह्मण के संग परिहास करने और आश्वास देने के लिये सुबदना से विशेष अनुरोध करके वह अनाथिनी के पास आ सोई । सुगदना रसिका थी, यह तो हम कहो आए हैं;