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सुखशर्वरी। - - vv. अनाथिनी.-"सरले! वे क्या तुम्हें बहुतही चाहते थे ?" सरला,-"ये मुझे अब तक प्राण से ज्यादे चाहते हैं, पर उन्हें मैं इतना नहीं मानती।" अनाथिनी,-"तुमने जो व्याह करना न चाहा तो वे चुपचाप चले गए होंगे?" सरला,-"न जाते तो क्या करते ? परन्तु वे केवल चले ही नहीं गए, परन जाते समय कई बंद आंसू भी यहां गिरा गए !" अनाथिनी,-"वे रोए थे ?- सरला ! यह तुमने अच्छा काम नहीं किया। माहा! उनकी आशा को एक दम से काटना तुम्हें उचित नहीं था। ये तुम्हें यथार्थ ही चाहते थे । मैं जो उस समय यहां होती तो उनसे वियाह करने के लिये तुम्हारा अनुरोध करती।" सरला,--"बहू ! तुम कहीं पागल न हो जाना!" अनाथिनी,-"वे रोए थे, यह बात सुनकर भी तुम्हारी पत्थर सी छाती नहीं पसीजी!" सरला,-"दया कैसी ? जिसे मैं नहीं चाहती, उसे तुम्हारा नन्दोई कैसे बनाऊं?" अनाथिनी,-"हाय ! तुम्हें दया नहीं आती ? सभी क्या अभिलषित वस्तु और प्रेम पदार्थ पाते हैं ? यदि ऐसा होता तो संसार में इतना दुःख न रह जाता। उन्हीं के संग तुम्हें ब्याह करना उचित था। पिता जिसे ले आए थे; उसीको सादर ग्रहण करना था। विशेषतः वे तुम्हें चाहते भी थे। प्रेमपदार्थ न मिलने से कैसा कष्ट होता है, यह तुम्हें मालूम नहीं है। "

  • सरला,-"बहू ! तुम बिक्षिप्त हुई का ? यह बात मैं क्या नहीं जानती ?"

अनाथिनी,-"अच्छा ! यदि फिर वे यहां आवे, तुम्हारी खुशामद करें, तुम्हारा कुछ सन्तोष करें, और मैं भी उनकी ओर से तुम्हारा चिबुक धरकर विनती करूं, तो क्या तब भी तुम उन्हें न अपनाओगी?" सरला,-"यह ! तुम उनके लिये इतना क्यों सोच करती हो ? यहां आने के समय तुमसे बाबा ने कुछ कहा था ? " इतना करकर यह मन में कहने लगी,-'कदाचित भैया उन्हीं