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सुखशवरा। मंग की दाल तो मुझसे बढ़कर महल्ले भर में नहीं बनी था।' कोई बोली,-'भाई, मुझसे अच्छो क्या कोई रसोई बनावेगा!' कोई बोली,-'उस महल्ले में उस दिन फलानै बाबू के लड़के का ब्याह न था !' बस रसोई की बात छोड़ कर अब बर की समा. लोचना होने लगी। देखते देखते बर के सब दोष-गुण बाहर निकल पड़े ! फिर उत्तर ओर के एक कोने की बात उठी। कोई बोली'भाई, बड़े घर की बेटी है, उलटा-पट्टी खा रही है तो कोई नहीं पूछता! कोई बोली,-'छोकड़ी को बातें सुनो तो बस, 'सीता सती पारबती !'-जानों बिचारी कुछ नहीं जानती, दूध पीती है!' कोई बोली,-'जैसा रूप, तैसा गुण! कोई बोली'ठीक तो है ! बाप के गुण पर चली जाती है! 'बनारस' जाकर डाक्तरों की सहायता से पेट का दोष मिटा कर, फिर आकर शुद्ध गंगाजल बन गई !' इसी प्रकार अनेक गुरुतर विषयों की समा. लोचना होने के अनन्तर सब 'हूं!!! करतो करतो सोगई। इस समय दलान ने ता शान्तभाव धारण किया, किन्तु पासवाले कोठे में दो-चार दासियां अनाज की महँगो के ऊपर भयानक वक्त ता छांट रही थीं। ऊपर के भनेक कमरे सूने थे, क्योंकि सभी नीचे ही की दालान में अड़ी थीं; केवल बंगले में कोच के ऊपर हरिहरप्रसाद हाथ में पुस्तक लिये निद्रित थे। उसके समीपवाले एक घर में किसी बालिका ने प्रवेश किया। बालिका का नाम सरला था, यह हरिहरबाबू की कन्या थी। इसका बयस तेरह वर्ष का था, किन्तु कई कारणों से अभी तक यह अविवाहिता थी। यह अनाथिनी की अतिशय प्रियसखी थी। घर में घुसते ही इसने पुकारा,-" अनाथिनी ! व्यर्थ रात दिन क्या सोचा करती हो?". ____ अनाथिनी उसी घर में चिन्तामग्न बैठी थी, इसलिये उसने कोई उत्तर न दिया । तब सरला ने फिर हँस कर कहा,-" नहीं भाई ! आज से मैं तुम्हें अनाधिनी न कह कर बहू कहूंगी।" ___ अनाथिनी ने प्रकृतिस्थ होकर कहा,-" नहीं सखी, यह क्या कहती हो ? लोग सुनकर क्या कहेंगे!" सरला,-" नहीं, भाई ! मैं तो बहू' ही पुकारूंगी; लोगों के डर से तो मानों मर गई !!!"