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उपन्यास। arrermisareenimame mmmmmmmmmmmmm s षष्ठ परिच्छेद हरिहर का गृह । "तिर्हि देवो नारीणां, पतिबन्धुः पतिर्गतिः। पत्युर्गतिसमा नास्ति, दैवतं वा यथा पतिः ॥”.. (व्यासः) X Xन के एक बज गए थे। बड़ी कड़ी धूप विशुद्ध सोने की भांति झकाझक चमक रही थी। हम यह कह RO आए हैं कि बाबू हरिहरप्रसाद का घर आनन्दपुर में Eastern था। घर की बहू-बेटी, दास-दासी आदि घर के कामों को पूरा करके ठंढी जगह में आराम करती थीं। ग्राम एक प्रकार निस्तब्ध था, किन्तु बीच बीच में पेड़ों पर बैठे कौवे कर्कश चीत्कार करते थे। गृहस्थों की बहू-बेटो परस्पर एक दूसरी की जूआ का शिकार खेलतो खेलती कौवों की टांय टांय से विरक्त होकर उन्हें सात समुन्दर पार जाने का अभिशाप देती थीं। रह रह कर आकाश में मड़गती हुई चील्हों की कठोर ध्वनि कानों में वज्र सीसुनाई देती थी। जो हो, हरिहरबाबू के घर में बड़ा गोलमाल होता था। घर तिमंजिला था। अच्छा. बाहर ही से प्रारंभ हो,अब तक भी बाबूसाहब के भोजपुरिये दरवानों का भोजन नहीं निपटा था। कोई भांग घोटते थे, कोई गेटी बनाते थे, कोई खरहरी खटिया पर पड़े पड़े असभ्य गीत उड़ाते. थे और कोई इधर उधर टहलते हुए पेट पर हाथ फेरकर खाया-पीया भस्मसात् करने का उपक्रम करते थे, पांच-चार आदमी इधर उधर की लम्बी-चौड़ी बातें, किस्से-कहानियां और गप्प-सड़ाके लड़ा रहे थे। घर के भीतर नीचे की दालान में भी बड़ा तुमुल काण्ड उपस्थित था! दलान ठंढी थी, इसलिये महल्लेवाली बहुत सी युवती और प्रौढ़ा स्त्रियां आकर सिर खोल और आंचल पसार कर आलस्य दूर करती थी, और लेटे लेटे बड़ी बड़ी गप्पें हांकती थीं। पहले तो प्रत्येक के खाने-एकाने को बातें हुईं; कोई कोई अपनी रसोई की निपुणता से गर्वित होकर बोली,-'हां जी ! उस दिन की