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सुखशवरी। पज्जम परिच्छेद. विचारस्थान । "मुञ्चन्ति नैव साधुत्वं, साधवो दोनवत्सलाः । तथैव च खलत्वं स्वं, खलाः पापरताः सदा ॥" (व्यासः) KANTITY १७६५ ई० के वैशाख का महीना था और सोमवार का Mस दिन था। दस बज गए थे। कचहरी आनन्दपुर के पास थी । अशोक, मौलसरी, नीम आदि पेड़ों की SANSTREET'छाया से स्थान ठंढा और मनोहर था। प्रत्येक पेड के नीचे अपनी अपनी दरी बिछा कर कचहरी के अमले-फैले, वकील-मवक्किल आदि बैठे थे। एक इमली के पेड़ के नीचे चार फकीर बैठे आपस में कुछ बातें कर रहे थे। प्रथम,-"भाई मेहरबखश ! उसकी ऐसी हालत क्यों हुई?" द्वितीय,-"क्या जान भाई ! अल्लाह जाने ! शायद सौ रुपए के लोभ से।" प्रथम,-"अब वे रुपए कहां हैं ? क्या होगा, यह कौन कह सकता है ? अच्छा यह काम कब किया था ?" द्वितीय,-"नहीं कह सकता । उसका जमीदार के संग बहुत मेल है; सो कब यह काम किया! यह क्या अच्छा हुआ !" चतुर्थ,-"भाई यह बात कब हुई ?" तृतीय,-मैं जानता हूं; जिस दिन वहुत वर्षा हुई थी, उसी दिन यह काम हुआ था।" प्रथम,-"ठीक है, ऐसा ही होगा। ओह ! इसीलिये उस दिन वह हमलोगों के संग भीख मांगने नहीं गया था। अच्छा वह क्योंकर पकड़ो गया ?" . तृतीय,-"वह बड़े ताज्जुब की बात है !” द्वितीय,-"क्या, क्या ? कहो तो सही!" तृतीय,- 'शायद किसो चपरासी ने रात को वहां लुककर ये सब बातें सुनी थीं।”