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२० सुखशवरी। and पाठक ! हरिहरबाबू को आपने चीन्हा ? उन्होंने घबड़ाकर जोर से पुकारा,-"बेटी ! अनाधिनी! ओः! यहां क्यों आई?" का अनाथिनी गहरी नीद में थी, सो पहिली पुकार में करवट बदली, दूसरी बार जाग उठी । समझो कि "या पिता पुकारते हैं !" पर मन में तुरन्त स्मरण हुभा कि, 'पिता तो स्वर्ग में हैं !' वह बहुतं डरी और निद्रा भी खुल गई। वह उठ बैठो और हरिहरबाबू की ओर एक बार देख कर उसने मंह नीचा कर लिया। - हरिहर,-"तुम्हीं अनाधिनी हो? तुम इस निर्जन भागीरथी के किनारे अकेली कैसे आई ?" अमाथिनी,-"मैं ही अनाथिनी हूं, भाग्य के दोष से मेरी यह दशा हुई !" .. हरिहर,-"ऐं ! तुम्ही अनाथिनी हौ ? तुम्हारे पिता कहां हैं ? सुरेन्द्र कहां है ?" ____अनाथिनी,-"पिता स्वर्ग गए और भाई को कोई चुरा ले गया ।" हरिहर,-"हा ! पिता स्वर्ग गए; यह कब ?" अनाथिनी,-"गत सोमवार की रात को।" हरिहर,-"किस जगह ?" अनाथिनी,-" पास ही के स्मशान में।" हरिहर,-"स्मशान में ! वहां क्यों ?" अनाथिनी,-"वे हमलोगों को संग लेकर अपने एक मित्र के घर जाते थे । डर से नाव पर नहीं गए, जंगल लांघ कर स्मशान में पहुंचे; पर वहां बहुत सुस्त होने से वहीं पर प्राण गया। हा!" हरिहर,-"हा ! बड़ा दुःख हुआ। पहिले तो व्याकुलता,-फिर मर्मभेदी दुःख, उस पर बुढ़ापा, तिसमें पथश्रम,-ये ही सब मित्र की मृत्यु के कारण हुए। हा! वे तो अब अनन्तकाल के लिये सुखी हुए । हाय, रामशङ्कर कैसा पतित और निष्ठुर है ! क्या ईश्वर उसे इसका प्रतिफल न देंगे! अवश्य ही देंगे ? हा ! सुरेन्द्र को कौन उठा लेगया ?" अनाथिनी,-"मैं पिता के मरने पर यहों, पास ही, एक बूढ़ी की कुटीर में भाई के संग रहती थी, क्योंकि और दूसरा आसरा नहीं था। वहां एक फकीर परसों रात को आया था, वही ले गया।"