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सुखशवरी। लगी। उस चिल्लाहट को प्रतिध्वनि ने भीषण स्वर से उत्तर दिया। प्रतिध्वनि होने के पीछे ही, "भागो! भागो! यहां क्यों प्राण देने आई हौ ?” ये शब्द अनाथिनी के कानों में गए । बालिका डर के मारे चारोंओर देखने लगी, अन्त में ऊपर एक खिड़की में अपूर्व और अकथनीय मुख दीख पड़ा। - उस मुखच्छबि से मोहित होकर बालिका ने कहा,-"ऐं ! आप मुझे यहांसे भागने के लिये क्यों कहते हैं ? क्या यहां कोई भूला-भटका बालक आया है ? " अपरिचित,-"मैं कौन हूं ? एक ठाभागा आदमी। यह भग्नगृह एक दुर्दान्त कापालिक का बासस्थान है, सुतरां तुम अपनी जान लेकर अभी भागो। यहां न कोई बालक आया, और न मैंने देखा।" _ यालिका,-"आप अभागे क्यों हैं ? और दुष्ट कापालिक के हाथ कैसे पड़े ?" अपरिचित,-'हा! क्या कहूं ?" यह कहकर उसने मन में कहा,-"कुछ दिनों के बाद एक बार ही जीवन का दीए निर्वाण होगा, तब विपद के छिपाने से क्या प्रयोजन है ?" बालिका स्थिर नेत्रों से युवक का मुख देखने लगी। अपरिचित युवा, चंचलनयनी कुतूहलाक्रांत बाला के संशय दूर करने के लिये अपना वृत्तान्त कहने लगा। वह बोला,-"एक दिन सन्ध्या के समय मैं किसी कार्य के लिये घोड़े पर चढ़कर इसी पथ से दर किसी ग्राम की ओर जाता था। उस समय भयानक आंधी उठी और संग ही मूसलधार पानी भी बरसने लगा। अश्व की गति रुकने से निरुपाय होकर आश्रय लाभ की आशा से मैंने इस घर में प्रवेश किया। रात्रि अंधेरी थी और आगे चलने की सामर्थ्य नहीं होती थी । शरीर भी परिधान्त हो रहा था, अतः सोच बिचार कर यहीं बिश्राम किया। धीरे धीरे निद्रा आगई । प्रातः काल जाग कर देखा कि, 'मैं नरघाती कापालिक के हाथ बन्दी हूं।" _बालिका ने युवक की बात सुनकर दीघनिश्वास त्यागकर कहा,-"आपकी दुःख-कहानी सुनकर छाती फटी जाती है। हा! मैं क्या कुछ भी आपकी सहायता नहीं कर सकती हूं? कहिए? वह दुःखदायी शत्र अभी कहां है ?"