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सुखशवरा।

उसकी चिन्ता दूर हुई । उसने देखा कि, 'कपड़े के भीतर एक पत्र पड़ा है ! आग्रह से उसे उठा लिया, और देखने से शोकराशि बढ़ गई । उसने सोचा, 'ऐं ! यह पत्र किसका है ? मेरे पिता का? फिर मन में दो एक बेर उसे पढ़ा, पर चित्त के न मानने से पुनः धीरे धीरे पढ़ा, पत्र यही था,--

"महाशय!

"आपका पत्र पाकर बहुत दुःखित हुशा, किन्तु अत्यन्त सन्तुष्ट भी हुआ । रामशङ्करबाबू का अत्याचार तो मेरे दुःख का कारण हुआ, पर अनुग्रह-पूर्वक आपका यहां आने का प्रस्ताव मेरे सुख तथा हर्ष का हेतु हुआ। जन्मभूमि में जो शत्रु लोग बहुत बढ़ जाय, तो उस प्यारी भूमि को भी छोड़ ही देना चाहिए। आप जो यहां आने में संकोच न करेंगे तो मैं अतिशय बाधिक होऊँगा। मुझे आप अपने छोटे भाई की तरह जानिए । आप हमलोगों के मान्य और शुभाकांक्षी हैं। आपकी आन्तरिक इच्छा मैंने समझी, वह यहां आने पर यथासमय सम्पन्न होगी। आपने लिखा कि,-'दरिद्र व्यक्ति की कन्या के सहित संभ्रान्त पुरुष के पुत्र का विवाह किस प्रकार संभव है?'-यह तीखी बात फिर न सुनूं तो नितान्त अनुगृहीत होऊँगा। पत्र पाते ही बालिका और बालक के संग अवश्य पधारिए।

वशंवद,

श्रीहरिहरशर्मा।

पत्र को पढ़ कर अनाथिनी ने क्या सोमा ? पिता का विषय ! एक बेर यह पत्र इसके पिता के आनन्दाथ से आर्द्र हुआ था, आज बालिका के कोमल नेत्रों के हर्ष-निषाद मय आसुओं से भोंगा!

अनाथिनी ने अनिर्मेष-नयनों से पत्र को बारबार देखा, फिर धोरे धीरे मोड़ कर अंचल में बांध लिया। फिर खोला, फिर पढ़ा, और फिर बांध लिया।

अनाथिनी मन में सोचने लगी कि, 'संसार में मेरे पिता के एकमात्र मित्र हरिहरबाबू ही हैं, पर उनका घर कहां है ? '

'मेरा क्या विवाह !' उन्होंने लिखा कि, 'बालक-बोलिका के । संग आना ! हा ! भैया सुरेन्द्र कहां है ? पिता तो स्वर्ग गए!