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सुखशर्वरी।

से, " इधर आओ बेटा! " यह शब्द तीर की तरह छूटा हुआ आया। यह ध्वनि आश्रय चाहनेवाले के कानों में गई । उस समय पथिक चारोओर देखने लगा। विद्य त्प्रकाश में दिखाई दिया कि, 'पास हो वृक्षों की बारी से घिरे हुए एक कुटीर में से दीपक का थोड़ा थोड़ा उँजाला आ रहा है। इसी प्रकाश को लक्ष्य कर के बड़े कष्ट से पथिक वहां पहुंचा, और प्रकाश के समीप पहुंच कर उसने देखा कि, 'एक सुन्दर कुटीर है ! उसके बाहर का भाग वृक्षों से घिरा हुआ है, और द्वार पर एक वृद्धा बैठी चर्खा कात रही है।'

वृद्धा ने पथिक को देखकर आह्लाद के संग कहा,-"बेटा! मेरी आवाज तुमने सुनी थी न । बैठो, बेटा ! बैठो।”

पथिक आश्रय पाकर हर्ष से बुढ़िया के पास बैठ गया, वृद्धा चरखा कातना बन्द करके पथिक के संग वार्तालाप में प्रवृत्त हुई !

वृद्धा,-"तुम्हारा घर कहां है, भाई ! और नाम क्या है ? "

पथिक,-"मेरा घर मिहरपुर है, और नाम मनसागम है। "

वद्धा,-"यह लम्बा-चौड़ा नाम गाम रहने दो ! मैं भैया-बञ्च कहकर पुकार लंगी। भला, इस आंधी-पानी में कोई घर के बाहर निकलता है ? कहांसे आते हो? और अब तक कहां रहे? "

पथिक " हां आं आं" यह कहकर अपने मन में बिचोरने लगा,-"व्यर्थ अबतक इधर उधर भटकता था! जिसे खोजता था, उसने स्वयं ही पुकार लिया।"

वद्धा,-"अच्छा बेटा ! तुम क्या मुसल्मान हौ ? कितने दिनों से फकीरी करते हो?"

पथिका,-"हां, ठीक-बीस वर्ष से।"

वद्धा,-"अच्छा, रोज खाने भर भीख मिल जाती है ?"

पथिक.-"नहीं माई, इसका कोई ठिकाना नहीं है, 'सब दिन नाहीं बराबर जात'-किसी दिन ज्यादे मिलता है,किसी दिन कम।"

वद्धा,-"आज कहां गए थे। और क्या मिला?"

पथिका,-"गाज आनन्दपुर गए थे,पर कुछ विशेष नहीं मिला।"

इसी समय एक बालक कुटीर के भीतर से आकर बोला,"क्यों ! मां ! यह पानी कब खुलेगा रे ? "

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