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उपन्यास।
द्वितीय परिच्छेद

कुटीर ।

"अपवादादभीतस्य, समस्य गुणदोषयोः।
असद्वत्तेरहो वृत्तं, दुर्विभाव्यं विधेरपि ॥

"

(भारविः)

न्ध्या होनेवाली थी और आकाश सघन-मसीमयी जलदमाला से ढका था। अभीतक प्रचण्ड बायु बहती थी, पर अब मेघमण्डल को एकता के सूत में देख भय से अपनी प्रचण्डता कम करने लगी। मेघमाला शत्रु को वश में करके हँसी, वही हँसी चंचलो की छटा थी। मेघ के हास्य को देख कर प्रचण्ड बायु तिरस्कार के छल से गरज उठी, फिर हँसी थम्ही और तिरस्कार भी रुका। मेघमण्डल मानो अपना दोष स्मरण कर अनुतप्त हो रोने लगा, वही अश्र. चिन्द प्रबल वारिधारा में परिणत होकर बरसने लगी। रोते रोते बायु की अवश्यता याद करके मेघगण धीच बीब में, हँसते भी थे और रह रह कर बज्रगंभीर गर्जन भी करते थे, समय भयक्ड़र और दुर्गम था।

बिजली के आलोक में सामने एक सरपट मैदान दिखाई दिया । यह स्थान पूर्वोक्त स्मशोन से दो कोस उत्तर की ओर था। प्रान्तर के एक और कल्लोलवाहिनी भागीरथी बहती थी। वहांके वृक्षों के पत्तों के ऊपर वर्षाविन्दु पड़ापड पड़ती थी। बराबर वृष्टि ने वृक्ष के वासी पक्षियों को बड़ा कष्ट दिया था, इससे वे कलरव कर रहे थे, किन्तु सभोंका शब्द वष्टि के वर्षाकर शब्द से मिल गया था। भला, नगारखाने में तूती की आवाज कभी सुनाई देती है!

सहसा उस प्रान्तर में, “आह ! कहीं पर ऐसी जगह नहीं मिलती, जहां आश्रय लूं!" इस प्रकार सकरुण आर्तनाद सुनाई देने लगा। यह भयंकर ध्वनि वष्टि के तुमुल शब्द में नहीं लीन हुई, बरन बहुत दूर तक तैर गई । इस पर प्रान्तर की दूसरी ओर