पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/९२

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सिद्धान्त और अध्ययन 'पालि प्रजा सन्तान सम, थकित चित्त जब होइ । हूँढत ठाँउ इकन्त नृप, जहाँ न श्राधे कोइ । सब हाथिन गजराज ज्यों, लेके बन के मोह । घाम लग्यो खोजत फिरत, दिन में शीतला छौं ।' -अभिज्ञानशाकुन्तल (११०१) श्रीबच्चनजी में अपने 'प्राकुल अन्तर' नाम के कार-संग्रह में इसी प्रकार के स्वस्थ पलायन वाद का समर्थन किया है :-- 'कभी करूंगा नहीं पलायन जीवन से, लेकर के भी प्रण मन मेरा खोजा करता है क्षण भर को वह और छिपा लू' अपना शीश जहाँ। अरे है वह वक्षस्थल कहाँ ?' नाकुल अन्तर (पृष्ठ १७) ४. कला जीवन में प्रवेश के अर्थ : कला का उद्देश्य जीवन से पीट दिखा : कर भागना नहीं है वरन् उसके द्वारा जीवन के गहा बन में प्रवेश कर उसमें सौन्दर्य के दर्शन करना है । जो संसार के रुदन और काली रात से भागता है वह उसके हास की चन्द्रिका से वंचित रहता है । सच तो यह है कि काली रात में भी एक विशेष सौन्दर्य है। कविवर पंत पृथ्वी के कण-कण में सौन्दर्य देखते हैं :- 'इस धरती के रोम रोम में भरी सहज सुन्दरता, इसकी रज को छू प्रकाश बन मधुर विनम्र निखरता।'. ---युगवाणी (मानवपन, पृष्ठ १७) प्रसाद जी केवल पलायनवादी नहीं है। उन्होंने भी जीवन को जगाया है :...- 'अब जागो जीवन के प्रभात । . रजनी की लाज समंटो तो, कलरव से उठकर अटो तो, अरुणांचल में चल रही बात ! श्रय जागो जीवन के प्रभात !! . -लहर (पृष्ठ २२)