पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/७८

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४ : साहित्य की मूल प्रेरणाएँ 'एक लहैं तपपुञ्जन्ह के फल ज्यों तुलसी अरु सूर गोसाँई । एक लहैं बहु सम्पति केशव भूषन ज्यों बर बीर बहाई ॥ एकन्ह को जस ही सो प्रयोजन है रसखानि रहीम की नाँई । दास कवित्तन्ह की चरचा बुद्विवन्तन को सुखदै सब ठाई ॥' -भिखारीदासकृत काव्यनिर्णय (मालाचरण १०) साहित्य की गौरव-गरिमा का गायन करते हुए प्रायः लोग कहा करते है कि वह पृथ्वी और स्वर्ग के बीच की वस्तु है किन्तु वास्तव में साहित्यिका की गति त्रिशंकु-की-सी नहीं है । विश्वामित्र की भाँति राहि- साहित्य और त्यकार अपने यजमान को सदेह स्वर्ग पहुँचाने का दावा जीवन नहीं करता वरन् वह अपने योगबल' रो इसी पृथ्वी पर ही ___स्वर्ग की प्रतिष्ठा कर देता है। पृथ्वी से ऊपर का स्वर्ग तो बिना मरे नहीं प्राप्त होता है। किसी वस्तु को 'स्वर्ग की है' कहकर प्रतिष्ठा देना इस लोक का अपमान करना है । साहित्य इसी लोक की किन्तु असाधारण वस्तु है और उसके मूल तन्तु जीवन से ही रस ग्रहण करते हैं। साहित्य जीवन से भिन्न नहीं है वरत् वह उसका ही मुखरित रूप है। वह जीवन के महासागर से उठी हुई उच्चतम तरङ्ग है । मानव-जाति के भावों, विचारों और संकल्पों की आत्मकथा साहित्य के रूप में प्रसारित होती है। साहित्य जीवन-विटप का मधुमय सुमन है। वह जीवन का चरम विकास है किन्तु जीवन से बाहर उसका अस्तित्व नहीं । उसमें पाचन (Assimillution), वृद्धि (Growth), गति (Movement). और पुनरुत्पादन (Reprodluc- tion) आदि जीवन की सभी क्रियाएँ मिलती हैं। अङ्ग अङ्गी से भिन्न गुण- वाला नहीं होता, इसलिए जीवन की मूल प्रेरणाएँ ही साहित्य की मूल प्रेरक शक्तियाँ हैं । जो वृत्तियाँ जीवन की और सब क्रियाओं की मूल स्रोत हैं, वे ही साहित्य को भी जन्म देती हैं। . जीवन की मूल प्रेरणात्रों के सम्बन्ध में प्राचार्यों का मतभेद है। इनका