पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/४४

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सिद्धान्त और अध्ययन वास्तव में अलङ्कार-सहित पूर्ण रचना को ही काव्य कहेंगे। कुन्तल (१० वीं शताब्दी) के अनुकूल काव्य के भीतर ही अलङ्कारों को पृथक् किया जायगा :---- 'अलंकृतिरलङ्कार्यमपोत्य विधेच्यते । तदुपायतया तरचं सालद्वारस्य काव्यता ।।' -वक्रोक्तिजीवित (१७) अलङ्कार कृत्रिम या आरोपित हो सकते हैं और होते भी हैं किन्तु महत्त्व कवि के हृद्गत उत्साह से प्रेरित सहज अलङ्कारों का ही है। ये ही रस के उत्कर्ष के हेतु बन सकते हैं। ____ध्वनिकार ने अलङ्कारों का रस से सम्बन्ध बतलाते हुए कहा है कि ये ही अलङ्कार काव्य में स्थान पाने योग्य हैं जो रस-परिपाक में बिना प्रयारा के सहायक हों। ध्वनिकार के मत से रसिक और सहृदय प्रतिभावान् पुरुष के लिए अलङ्कार अपने आप दौड़े हुए पाते हैं और प्रथम स्थान पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। उनके मत से अलङ्कारों की सार्थकता इसी में है कि ये रस और भाव का आश्रय लेकर चलें:- 'रसभावादितात्पर्यमानित्य विनिवेशनम् । अलंकृतीनां सर्वासामलकारत्वसाधनम् ॥' -वन्यालोक (२१६) वैसे भी रस और अलङ्कार दोनों एक-दूसरे की पुष्टि करते भाये है। हमारे यहाँ अलङ्कारों में जो वर्ण्य विषय मिले हुए हैं ये रस से ही किसी-न- किसी रूप से सम्बन्ध रखते हैं। रसवत् अलङ्कार तो इस राज्ञा में पायगा ही। कभी-कभी सूक्ष्म और पिहित. आदि अलङ्कार केवल गिया-चातुर्य या वाक्- चातुर्य के द्योतक न होकर रस के किसी अङ्ग से ही सम्बन्धित रहते हैं। सूक्ष्मालङ्कार प्रायः शृङ्गार का ही विषय बनता है। उसका प्रयोग प्रायः वचन- विदग्धा वा क्रिया-विदग्धा नायिकानों द्वारा ही होता है । वक्रोक्ति प्रायः हास्य- रस में सहायक होती है। अभिसारिका नायिकाओं की गतिविधि में मीलित और उन्मीलित अलङ्कारों के उदाहरण मिल जाते हैं। नीचे के उदाहरण में शुक्लाभिसारिका द्वारा मीलित अलङ्कार चरितार्थ हो रहा है :--- 'जुबति जोन्ह में मिलि गई, नैंक न होति लखाइ । सौंधे के ढोरै लगी, अली चली सँग. जाइ ॥' -बिहारी-रत्नाकर (बोहा ) . अतिशयोक्ति, विभावना, प्रतीप, उत्प्रेक्षा प्रादि सभी अलक्षार कवि के हृदय में उपस्थित उपमेय को प्रधानता देने की भावना के द्योतक है। अनुप्रास