पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/३००

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२६४ सिद्धान्त और अध्ययन (कालसङ्कलन, स्थलसङ्कलन और कार्यसङ्कलन) की ओर नाटककारों का फिर झुकाव हो चला है । डाक्टर रामकुमार वर्मा के एकांकी नाटकों में इनका अच्छा निर्वाह है। भरतमुनि ने जो नियम बनाये थे उनका पालन भवति के 'उत्तररामचरित' में ही नहीं हुआ। उसमें एक स्थान पर दो बाङ्गों के बीच का समय (पहले और दूसरे के बीच का) बारह वर्ग का कर दिया है। पहले अङ्क में सीताजी के निर्धारान का हाल है और दूसरे में लव और कुश के ११ वर्ष के हो जाने के पश्चात् उनके वेदाध्ययन की बात पात्रेयी द्वारा कहलाई जाती है.---'समनन्तरं च गर्भकादशेनः क्षात्रण कल्पेनोपनीय गुरुणा- नयी विद्यामध्यापितौ' (उत्तररामचरित २१४ के पूर्व) । नियम एक वर्ष से अधिक : के समय की प्राज्ञा नहीं देते--'वर्षादृष्य न तु कवाचित' (नाट्यशास्त्र, २०१२६)। भवभूति के समय से तो अब गङ्गाजी में बहुत पानी बह चुका है । अब न तो कुलीनता का वह मान ही रहा है (प्राचीन आदर्शों के अनुकल नायक का कुलीन होना आवश्यक था) और न सुखान्त होने का आग्रह । अन्न सन्धियों, अवस्थाओं तथा प्रस्तावना आदि का भी बन्धन नहीं रहा। साहित्य सजीव वस्तु होने के कारण जड़ स्थिरता से ऊँचे स्तर : की वस्तु है। प्रकृति के नियम अटल चाहे हों पितु उनमें जड़ता है। उनमें सचेतन मनुष्य-का-सा संबाप और कल्पना का स्वातन्त्र्य कहाँ ? काव्य में मनुष्य की सजीवता, स्वच्छन्दता और प्रगतिशीलता पूर्णरूपेण उतर आती है । सन्तान में जनक की पूर्ण प्रतिच्छाया रहती है । प्रतिभा की परि- भाषा में ही नवनवोन्मेषशालिनी की क्षण-क्षण की नवीनता प्राजाती है । उसको आलोचक नियमों के बन्धन में बाँधकर इतने ही हास्यास्पद बन जाते हैं जितने कि 'क्षणे क्षणे यन्नंयतामुपैति' वाली रमणीयता से विभूषित बिहारी की नायिका के चितेरे :--- 'लिखिन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर । भए न केते जगत के चतुर (चितेरे फूर ॥'


बिहारीरस्नाकर (दोहा, ३४७)

प्रतिभा. को नैसगिकी कहा गया है-'नैसर्गिकी च प्रतिभा' (दण्डी)। अंग्रेजी में भी कहावत है---Tocts are born ind not made.' बनी हुई चीज तो नियमों में बँध सकती है किन्तु स्वतन्त्र स्फूति की वस्तु नियमों के बन्धनों में नहीं पाती है । कविता जब 'नियतिकृतनियमरहिता है। तब वह मनुष्य के बनाये हुए नियमों को कब मानने लगी ? इलाजवेथ माउंनिंग ने लिखा है कि नाटक में पांच ही अङ्खों का नियम क्यों रखा जाय, पाँच के.