पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२४३

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काव्य का कलापक्ष---वक्रोक्ति (अलकार नहीं) २०७ लिए हृदय का प्रोज या उल्लास अलङ्कारों के मूल में माना जायगा । अल- कार रसानुभूति में भी सहायक होते हैं। उपमा, रूपक अादि मानसिक चित्रों द्वारा स्पष्टता ही प्रदान नहीं करते वरन् अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, उदाहरण आदि अलङ्कारों द्वारा विचारों की पुष्टि करते हैं । भ्रान्ति, सन्देह, स्मरगा, उत्प्रेक्षा आदि अलङ्कारों द्वारा सादृश्य को नाना रूपों में उपस्थित किया जाता है। इसी प्रकार क्रम वा यथासंख्य अलङ्कारों द्वारा रचना में क्रम उपस्थित करते हैं तथा व्यतिरेक, विभावना, असङ्गति, विषम, व्याघात द्वारा विरोध का चमत्कार उत्पन्न किया जाता है और दिखाया जाता है कि ब्रह्मा की सृष्टि से कवि की सृष्टि में विलक्षणता है। अन्योक्ति, समासोक्ति, पर्यायोक्ति एवं सूक्ष्म, पिहित प्रादि द्वारा उक्तिवैचित्र्य और बचनचातुर्य का चमत्कार दिखाया जाता है । कारण माला, एकावली, मालादीपक और सार आदि शृङ्खलामूलक अलङ्कारों द्वारा प्रभाव को बढ़ाया जाता है। लोकोक्ति द्वारा भाषा में एक सजीवता लाई जाती है। शब्दालङ्कारों द्वारा शब्दमाधुर्य की सष्टि की जाती है। . वक्रतापूर्ण प्रयोगों से कथन में एक विशेष विदग्धता आजाती है । कुन्तल ने गुण, रीति, अलङ्कार आदि सभी को वक्रोक्ति के अन्तर्गत कर दिया है। वक्रता का अर्थ एक प्रकार का सौन्दर्य है । कुन्तल ने वक्रोक्ति शब्द और अर्थ के तथा शब्द-शब्द के एवं अर्थ-अर्थ के (अलङ्कार नहीं) सामञ्जस्य पर बहुत बल दिया है। साहित्य का अर्थ ही है सहित होना-साम्य होने का भाव । तीन मार्ग :-कुन्तल ने शैली के तीन मार्ग माने हैं-एक सुकुमार और दूसरा विचित्र (यह विभाजन देशों आदि पर निर्भर न रहकर गुणों पर निर्भर है ) तथा तीसरा मध्यम मार्ग जो इन दोनों के बीच का है। सूकुमार मार्ग म रस और भाव की प्रधानता रहती है और विचित्र मार्ग में उवित और अलङ्कारों को मुख्यता मिलती है। सुकुमार मार्ग में स्वल्प और मनोहर विभू- पण होते हैं और वे यत्नपूर्वक नहीं लाये जाते हैं-'श्रयत्नविहित स्वल्प- विभूषणा'---इसका सौन्दर्य सहज होता है। इसमें माधुर्यगुण की प्रधानता रहती है जो समास रहित पदों द्वारा व्यञ्जित होता है। समास के कारण प्रसादगुण में भी बाधा पड़ती है । इस मार्ग का दूसरा गुण है प्रसाद । इसके द्वारा अर्थबोध सहज ही में हो जाता है । उन्हीं अर्थों द्वारा रस व्यजित होता है । प्रसाद के साथ वक्रता उसी मात्रा में रह सकती है जिसमें कि वह अर्थबोध में बाधक न हो। तीसरा गुरण है लावण्य, इसका सम्बन्ध शब्दों और वर्णों से