पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२२६

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१६० सिद्धान्त और अध्ययन उसमें गीत, वादा, दृश्य-विधान काव्य के प्रभाव को बढ़ाने में एक विशेष उद्दीपन का काम करते हैं । वहाँ पर शब्दों को पात्रों की भावभङ्गी और चेष्टाओं द्वारा अधिक अर्थव्यक्ति प्राप्त हो जाती है। श्रव्य काव्य में शब्द ही मानसिक चित्र उपस्थित करते हैं, इसलिए उसमें ग्राहक-बाल्पना का अधिक काम पड़ता है। श्रव्यकाव्य में वर्णन और प्राक्कथन ( Nurration ) का प्राधान्य रहता है, दृश्य में कथोपकथन और क्रिया-कलाप का। श्रव्यकाव्य में भी कथोपकथन रहता है किन्तु अपेक्षाकृत कम । दृश्यकाव्य में आजकल के बढ़ते हुए मञ्च के संकेत श्रव्य काव्य के वर्णन का स्थान लेते जा रहे हैं। नाटक में कवि एक प्रमुख अङ्ग अवश्य है किन्तु उसकी सफलता में उसके अतिरिक्त नट, नाटक, व्यवस्थापक, गायक, वाद्य, मञ्चदृश्य और दर्शक भी योग देते हैं । नाटक एक बड़ी संकुल कला है । कवि को इन सबका ध्यान रखना पड़ता है । वह दर्शकों के समय, अवधान-शक्ति और रुचि से बँधा रहता है। उसे पहले से ही इन सब अङ्गों की कल्पना कर लेनी पड़ती है । नाटक में जहाँ द्रष्टा की कल्पना पर कम बल पड़ता है वहाँ स्रष्टा की कल्पना पर अधिक भार रहता है। कुछ लोग नाटक के लिए अभिनय को आवश्यक नहीं मानते । वे कहते है कि जिस प्रकार धन एक उत्तेजक वस्तु है ( कवि के लिए धन की लालसा आवश्यक नहीं ) उसी प्रकार अभिनेयता भी एक उत्तेजना-मात्र है। नाटक म भी कवि की अभिव्यक्ति का ही प्राधान्य है, मञ्च तो एक उपकरण-मात्र है। इस कथन से नाटक को श्रव्य से पृथक् काव्य की विधा स्वीकार करने में बाधा नहीं पड़ती है । उसमें जो कार्य-कलाप दृष्टिगोचर हो सकता है उसका वर्णन नहीं होता है। नाटक का जब अभिनय नहीं होता तब पाठकों की कल्पना पर अधिक वल रहता है । यद्यपि बहुत-से ऐसे नाटक हैं जो कक्ष-नाटक (Closet Dramas) कहे जा सकते हैं तथापि नाटक की पूर्णता अभिनय में ही है । नाटक शब्द का अर्थ भी नट से सम्बन्ध रखने वाला है। रूपक जो नाटक के लिए व्यापक शब्द है वह भी अभिनय से ही सम्बन्ध रखता है- 'रूपारोपात्तु रूपकम्' (साहित्यदर्पण)। नाटक रूप के आरोप के कारण रूपक कहलाता है । जो वस्तु जिसमें न हो उसमें देखना ही आरोप कहलाता है। ___आकार के आधार पर श्रव्य के पद्य, गद्य और मिश्रित (जिसका चम्पू एक भेद है) तीन विभाग किये गये हैं। गद्य की अपेक्षा पद्य में सङ्गीत और छन्द- प्रधान प्राकार-सम्बन्धी भेद में अभेद की मात्रा अधिक गद्य और पा रहती है । पद्य में भाजकल नियम और नाप-तोल का उतना मान नहीं रहा जितना श्रवण-सुखदता का। छन्द