पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२२०

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१२ : कवि और पाठक के व्यात्मक व्यक्तित्व .. संस्कृत के प्राचार्यों ने रसानुभूति अधिकांश में सहृदय पाठक या दर्शक म . मानी है। लोकमत भी कुछ ऐसा ही है-'कविः करोति काव्यान रसं जानन्ति 'पण्डिताः'यद्यपि यह बात किसी अंश में ठीक है कि कवि का हमारे यहाँ कवि के हृदयगत रस का विवेचन बहुत कम हृदयगत रस हुआ है तथापि हमारे देश के मनीषी इससे नितान्त उदासीन नहीं थे । गोस्वामीजी का 'स्वान्त मुनि सुखाय' कवि के हृदयगत रस का ही पर्याय है। नाट्यशास्त्र के कर्ता भरतमुनि भाव की व्याख्या करते हुए इस प्रकार लिखते हैं :-- 'वागङ्गमुखरागैश्च सत्त्वेनाभिनयेन च । कवेरन्तर्गत भावं भावयन् भाव उच्यते ॥' ~नाक्यशास्त्र (७१२) अर्थात् कवि के अन्तर्गत भाव की जो वाचिक, माणिक, मुख रागादि तथा सात्विक अभिनय द्वारा आस्वादयोग्य बनाता है, वह भाव कहलाता है। इस सम्बन्ध में भारतीय परम्परा में कविता के प्रारम्भ पर विचार कर लेना आवश्यक है। महर्षि वाल्मीकि का 'मा निषाद प्रतिष्ठा स्वमगमः शाश्वती समा' वाला भारतीय काव्य का प्रादि श्लोक कवि के शोक से द्रवीभूत हृदय का ही तो श्लोकरूप है-~'कोग्चद्वन्द्ववियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमातः' । कविवर पंतजी ने भी कहा है--वियोगी होगा पहला कचि, श्राह से निकला होगा गान'। अब प्रश्न यह होता है कि क्या कवि अपने दुःखात्मक अनुभवों को सीधा रस- रूप में प्रवाहित कर देता है ? क्या कवि का अनुभव लौकिक ही रहता है या उसका अनुभव भी साधारणीकृत होकर प्रास्वादयोग्य बनता है ? ऊपर उद्धृत किये हुए श्लोक पर अभिनवगुप्त की टीका के एक उद्धरण से, जो सुप्रसिद्ध दार्शनिक डाक्टर एस० एन० दास गुप्त के बङ्गाली भाषा में लिखे हुए 'काव्यविचार' नाम के ग्रन्थ में उद्धृत है, यह स्पष्ट है कि अभिनवगुप्ता- चार्य कवि के हृदयगत भाव का भी साधारणीकरण बतलाते हैं। वे कवि के लौकिक अनुभव को पास्वाद का विषय नहीं मानते। उनके मत में पाठक की भाँति कवि के हृदयगत तत्सम्बन्धी सँस्कारों को देशकाल के बन्धन से मुक्त